Madhushala (Hindi: मधुशाला) (The Tavern/The House of Wine), is a book of 135 "quatrains": verses of four lines (Ruba'i) by Hindi poet and writer Harivansh Rai Bachchan (1907–2003).
All the rubaaiaa (the plural for rubaai) end in the word madhushala. The poet tries to explain the complexity of life with his four instruments, which appear in almost every verse: madhu, madira or haala (wine), saaki (server), pyaala (cup or glass) and of course madhushala, madiralaya (pub/bar).
4. मदिरालय जाने को घर से
चलता है पीनेवला,
'ककस पथ से जाऊ?' असमंजस
ँ
में है वह भोलाभाला;
अलग-अलग पथ बतलाते सब
पर मैं यह बतलाता हँ…
'राह पकड़ त एक चला चल,
पा जाएगा मधशाला।'। ६।
ु
5. सन, कलकल़ , छलछल़ मधु-घट
ु
से गगरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल
ववतरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, िर नह ं कछ,
ु
ु
चार किम अब चलना है ;
चहक रहे , सन, पीनेवाले,
ु
महक रह , ले, मधुशाला।।१०।
6. लाल सरा की धार लपट-सी
ु
कह न इसे िे ना ज्वाला,
फननल मदिरा है , मत इसको
े
कह िे ना उर का छाला,
ििद नशा है इस मदिरा का
ववगत स्मनतयाँ साकी हैं;
ृ
पीड़ा में आनंि जजसे हो,
आए मेर मधुशाला।।१४।
7. धमद-ग्रन्थ सब जला चकी है ,
ु
जजसक अंतर की ज्वाला,
े
मंदिर, मसजजि, गगररजे-सबको
तोड़ चका जो मतवाला,
ु
पंडित, मोममन, पादिरयों क
े
फिों को जो काट चका,
ं
ु
कर सकती है आज उसी का
स्वागत मेर मधशाला।।१७।
ु
8. लालानयत अधरों से जजसने,
हाय, नह ं चमी हाला,
हर्द-ववकवपत कर से जजसने,
ं
हा, न छआ मधु का प्याला,
ु
हाथ पकड़ लजज्जत साकी को
पास नह ं जजसने खींचा,
व्यथद सुखा िाल जीवन की
उसने मधमय मधशाला।।१८।
ु
ु
9.
10. बने पजार प्रेमी साकी,
ु
गंगाजल पावन हाला,
रहे फरता अववरत गनत से
े
मधु क प्यालों की माला,
े
'और मलये जा, और पीये जा’इसी मंत्र का जाप करे ,
मैं मशव की प्रनतमा बन बैठं ,
मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।
11. एक बरस में , एक बार ह
जलती होल की ज्वाला,
एक बार ह लगती बाजी,
जलती ि पों की माला;
िननयावालों, ककन्तु, ककसी दिन
ु
आ मदिरालय में िे खो,
दिन को होल , रात दिवाल ,
रोज मनाती मधशाला।।२६।
ु
12. अधरों पर हो कोई भी रस
जजहवा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में
लगता रक्खा है प्याला,
हर सरत साकी की सरत
में पररवनतदत हो जाती,
आँखों क आगे हो कछ भी,
े
ु
आँखों में है मधुशाला।।३२।
13. समखी, तुम्हारा, सन्िर मख ह
ु ु
ु
ु
मझको कन्चन का प्याला,
ु
छलक रह है जजसमें माणणकरूप – मधर – मािक - हाला,
ु
मैं ह साकी बनता, मैं ह
पीने वाला बनता हँ,
जहाँ कह ं ममल बैठे हम-तुम़
वह ं गयी हो मधशाला।।६४।
ु
14. िो दिन ह मधु मझे वपलाकर
ु
ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब णखसका िे ती है
वह मेरे आगे प्याला,
नाज, अिा, अंिाजों से अब,
हाय वपलाना िर हुआ,
अब तो कर िे ती है कवल
े
फ़जद-अिाई मधशाला।।६५।
ु
15.
16. छोटे -से जीवन में ककतना
प्यार करँ , पी लँ हाला,
आने क ह साथ जगत में
े
कहलाया 'जाने वाला',
स्वागत क ह साथ वविा की
े
होती िे खी तैयार ,
बंि लगी होने खलते ह ,
ु
मेर जीवन-मधशाला।।६६।
ु
17. शांत सकी हो अब तक, साकी,
पीकर ककस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता
जाता हर पीनेवाला,
ककतनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
ककतने अरमानों की बनकर
कब्र खड़ी है मधशाला।।८९।
ु
18. यम आयेगा साकी बनकर
साथ मलए काल हाला,
पी न होश में कफर आएगा
सरा-ववसध यह मतवाला;
ु
ु
यह अंनतम बेहोशी, अंनतम
साकी, अंनतम प्याला है ;
पगथक, प्यार से पीना इसको,
कफर न ममलेगी मधशाला।८०।
ु
19. गगरती जाती है दिन-प्रनतिन
प्रणयनी प्राणों की हाला,
भग्न हुआ जाता दिन-प्रनतिन
सुभगे, मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे, रूपसी
दिन-दिन यौवन का साकी,
सख रह है दिन-दिन, सन्िर ,
ु
मेर जीवन-मधशाला।।७९।
ु
20.
21. ढलक रह है तन क घट से,
े
संगगनी जब जीवन-हाला,
पत्र गरल का ले जब अंनतम
साकी है आनेवाला,
हाथ स्पशद भले प्याले का,
स्वाि-सरा जीव्हा भले,
ु
कानो में तुम कहती रहना,
मधु का प्याला मधुशाला।।८१।
22. मेरे अधरों पर हो अंनतम
वस्तु न तुलसी-िल, प्याला
मेर जीव्हा पर हो अंनतम
वस्तु न गंगाजल, हाला,
मेरे शव क पीछे चलनेे
वालों, याि इसे रखना‘राम नाम है सत्य’ न कहना,
कहना ‘सच्ची मधशाला’।।८२।
ु
23. मेरे शव पर वह रोये, हो
जजसक आंस में हाला
े
आह भरे वो, जो हो सुररभत
मदिरा पी कर मतवाला,
िे मझको वो कान्धा जजनक
े
ु
पग मि-िगमग होते हों,
और जलं उस ठौर, जहां पर
कभी रह हो मधुशाला।।८३।
24. और गचता पर जाये उं ढे ला
पात्र न नित का, पर प्याला
कठ बंधे अंगर लता में ,
ं
मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण वप्रये, यदि श्राध करो तुम
मेरा, तो ऐसे करनापीने वालों को बुलवाकऱ,
खलवा िे ना मधशाला।।८४।
ु
ु
25. नाम अगर कोई पछे तो
कहना बस पीनेवाला,
काम ढालना, और ढालना
सबको मदिरा का प्याला,
जानत, वप्रये, पछे यदि कोई,
कह िे ना ि वानों की ,
धमद बताना, प्यालों की ले
माला जपना मधशाला।।८५।
ु
26. वपत ृ पक्ष में पत्र, उठाना
ु
अध्यद न कर में , पर प्याला,
बैठ कह ं पर जाना, गंगासागर में भरकर हाला;
ककसी जगह की ममटट भीगे,
तजप्त मझे ममल जाएगी
ु
ृ
तपदण अपदण करना मझको,
ु
पढ़-पढ़ करक ‘मधशाला’।
े
ु