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उपभोक्तावादी संस्कृ तत
• उपभोक्तावाद एक ऐसी आर्थिक प्रक्रिया है जिसका सीधा अथि है क्रक समाि के भीतर
व्याप्त प्रत्येक तत्व उपभोग करने योग्य है |
• उसे बस सही तरीके से एक िरूरी वस्तु के रूप में बािार में स्थापपत करने की
िरूरत है|
• उसको खरीदने और बेचने वाले लोग तो स्वत: ही ममल िाएंगे, क्योंक्रक मानव
मजस्तष्क चीिों को बहुत िल्दी ग्रहण कर लेता है, और िब एक ही चीि उसे बार-
बार बेहद प्रभावी तरीके से ददखाई िाए तो ऐसे हालातों में उस उत्पाद का व्यजक्त के
ददल और ददमाग दोनों पर गहरी छाप छोड़ना स्वाभापवक ही है|
भारत और उपभोक्तावादी संस्कृ तत
• भारत िैसे पवकाशशील देशों में िहााँ साम्राज्यवादी सम्पकि से परम्परागत उत्पादन का ढााँचा टूट गया है
और लोगों की बुतनयादी िरूरतों की पूतति के मलए उत्पादन के तेि पवकास की िरूरत है, वहााँ
उपभोक्तावाद के असर से पवकास की सम्भावनाएाँ कुं दित हो गयी हैं ।
• पजचचमी देशों के सम्पकि से इन देशों में एक नया अमभिात वगि पैदा हो गया है जिसने इस
उपभोक्तावादी संस्कृ तत को अपना मलया है ।
• इस वगि में भी उन वस्तुओं की भूख िग गयी है िो पजचचम के पवकमसत समाि में मध्यम वगि और
कु शल मिदूरों के एक दहस्से को उपलब्ध होने लगीं हैं ।
• इन वस्तुओं की उपलजब्ध में उनकी सामाजिक प्रततष्िा में भी बढ़ोतरी हो िाती है ।
• अत: इस अमभिात वगि में और इसकी देखा-देखी इससे नीचे के मध्यम वगि और तनम्न मध्यम वगि में
भी स्कू टर , टी.वी. , फ्रीि और पवमभन्न तरह के सामान और प्रसाधनों को प्राप्त करने की उत्कट
अमभलाषा िग गयी है ।
पहला
• चूाँक्रक यही वगि देश की रािनीतत में शीषि स्थानों पर है , देश के सीममत साधनों का
उपयोग धड़ल्ले से लोगों की आम आवचयकता की वस्तुओं का तनमािण करने के बिाय
वैसे उद्योगों और सुपवधाओं के पवकास के मलए हो रहा है जिससे इस वगि की
उपभोक्तावादी आकााँक्षाओं की पूतति हो सके ।
• चूाँक्रक उत्पादन का यह क्षेत्र अततपवकमसत तकनीकी का और पूाँिी प्रधान है , इन
उद्योगों के पवकास में पवदेशों पर तनभिरता बढ़ती है ।
• मशीन , तकनीक और गैरिरूरी वस्तुओं के आयात पर हमारे सीममत पवदेशी मुद्राकोष
का क्षय होता है , और हमारा सबसे पवशाल आर्थिक साधन जिसके उपभोग से देश का
तेि पवकास सम्भव था – यानी हमारी श्रमशजक्त बेकार पड़ी रह िाती है ।
• जिन क्षेत्रों में देश का पवशाल िन समुदाय उत्पादन में योगदान दे सकता है उनकी
अवहेलना के कारण आम लोगों की िीवनस्तर का या तो पवकास नहीं हो पाता या वह
नीचे र्गरता है ।
दूसरा
• चूाँक्रक उपभोक्तावाद व्यापक गरीबी के बीच खचीली वस्तुओं की भूख िगाता है , उससे भ्रष्टाचार को
बढ़ावा ममलता है ।
• चूाँक्रक अमभिातवगि में वस्तुओं का उपाििन ही प्रततष्िा का आधार है , चाहे इन वस्तुओं को कै से भी
उपाजिित क्रकया िाय , भ्रष्टाचार को खुली छू ट ममल िाती है ।
• कम आय वाले अर्धकारी अपने अर्धकारों का दुरपयोग कर िल्दी से िल्दी धनी बन िाना चाहते हैं
ताक्रक अनावचयक सामान इकट्िा कर सामाजिक प्रततष्िा प्राप्त कर सकें ।
• इसी का एक वीभत्स पररणाम दहेि को लेकर हो रहे औरतों पर अत्याचार भी हैं । बड़ी संख्या में
मधयमवगि के नौिवान और उनके माता – पपता , िो अपनी आय के बल पर शान बढ़ानेवाली वस्तुओं
को नहीं खरीद सकते , दहेि के माध्यम से इस लालसा को ममटाने का सुयोग देखते हैं ।
• इन वस्तुओं का भूत उनके मसर पर ऐसा सवार होता है क्रक उनमें राक्षसी प्रवृपि िग िाती है और वे
बेसहारा बहुओं पर तरह – तरह का अत्याचार करने या उनकी हत्या करने तक से नहीं दहचकते । बहुओं
की बढ़ रही हत्याएं इस संस्कृ तत का सीधा पररणाम हैं । डाके िैसे अपराधों के पीछे कु छ ऐसी ही भावना
काम करती है । रािनीततक भ्रष्टाचार का तो यह मूल कारण है ।
• रािनीततक लोगों के हाथ में अर्धकार तो बहुत होते हैं , लेक्रकन िायि ढंग से धन उपाििन की गुंिाइश
कम होती है । लेक्रकन चूाँक्रक उनकी प्रततष्िा उनके रहन-सहन के स्तर पर तनभिर करती है , उनके मलए
अपने अर्धकारों का दुरुपयोग कर धन इकिा करने का लोभ संवरण करना मुजचकल हो िाता है ।
• इस तरह समाि में जिसके पास धन और पद है और भ्रष्टाचार के अवसर हैं , उनके
और आम लोगों के िीवन स्तरों के बीच खाई बढ़ती िाती है । इससे भी शासक और
शामसतों के बीच का संवाद सूत्र टूटता है ।
• सिाधारी लोग आम लोगों की आवचयकताओं के प्रतत संवेदनहीन हो िाते हैं और उत्पादन
की ददशा अर्धकार्धक अमभिातवगि की आवचयकताओं से तनधािररत होने लगती है ।
• इधर आम िरूरतों की वस्तुओं के अभाव में लोगों का असन्तोष उमड़ता एवं उथल –
पुथल की अर्धनायकवादी तरीकों से िन-आन्दोलन से तनपटना चाहता है।
• तीसरी दुतनया के अर्धकांश देशों में रािनीतत का ऐसा ही अधार बन रहा है , जिसमें
सम्पन्न अल्पसंख्यक लोग छल और आतंक के द्वारा आम लोगों के दहत के खखलाफ
शासन चलाते हैं ।
• उपभोक्तावादी संस्कृ तत ने गााँवों की अथिव्यवस्था के इस पहलू को समाप्त कर
ददया है ।
• अब धीरे – धीरे गााँवों में भी सम्पन्न लोग उन वस्तुओं के पीछे पागल हो रहे हैं
िो उपभोक्तावादी संस्कृ तत की देन हैं ।
• चूाँक्रक गांव के सम्पन्न लोगों की सम्पन्नता भी सीममत होती है अब उनका सारा
अततररक्त धन िो पहले सामाजिक कायों में खरच होता था वह तनिी तामझाम
पर खरच होने लगा है और लोग गााँव के छोटे से छोटे सामूदहक सेवा कायि के
मलए सरकारी सूत्रों पर आर्श्रत होने लगे हैं ।
• इसके अलावा िो भी थोड़ा गााँवों के भीतर से उनके पवकास के मलए प्राप्त हो
सकता था , अब उद्योगपततयों की ततिोररयों में िा रहा है। इससे गााँवों की
गरीबी दररद्रता में बदलती िा रही है।
• भारत के गााँवों में िो थोड़ा बहुत स्थानीय आर्थिक आधार था उसको भी इस
संस्कृ तत ने नष्ट क्रकया है ।
• भारतीय गााँवों की परम्परागत अथि-व्यवस्था काफी हद तक स्वावलम्बी थी
और गााँव की सामूदहक सेवाओं िैसे मसंचाई के साधन ,यातायात या
िरूरतमन्दों की सहायता आदद की व्यवस्था गााँव के लोग खुद कर लेते थे ।
• यह व्यवस्था िड़ और िििर हो गयी थी।और ग्रामीण समाि में काफी
गैरबराबरी भी थी , क्रफर भी सामूदहकता का एक भाव था ।
• हाल तक गााँवों में पैसेवालों की प्रततष्िा इस बात से होती थी क्रक वे
साविितनक कामों िैसे कुाँ आ , तालाब आदद खुदवाने , सड़क मरम्मत
करवाने, स्कू ल और औषधालय आदद खुलवाने पर धन खरच करें ।
• इस पर काफी खरच होता था और आिादी के पहले इस तरह की सेवा-
व्यवस्था प्राय: ग्रामीण लोगों के ऐसे अनुदान से ही होती थी ।
• यह सम्भव इस मलए होता था क्योंक्रक गााँव के अन्दर धनी लोगों की भी तनिी
आवचयकताएाँ बहुत कम थीं और वे अपने धन का व्यय प्रततष्िा प्राप्त करने के
मलए ऐसे कामों पर करते थे।
• इसी कारण पजचचमी अथिशाजस्त्रयों और समािशाजस्त्रयों की हमेशा यह मशकायत
रहती थी क्रक भारतीय गााँवों के उपभोग का स्तर बहुत नीचा है िो उद्योगों के
पवकास के मलए एक बड़ी बाधा है ।
• इन लोगों की दृजष्ट में औध्योर्गक पवकास की प्रथम शति थी अन्तरािष्रीय बािार
और पवतनमय में शाममल हो िाना ।
• आि की उपभोक्तावादी संस्कृ तत हमारे िीवन पर हावी हो रही है।
• मनुष्य आधुतनक बनने की होड़ में बौद्र्धक दासता स्वीकार कर रहे
हैं |
• आि उत्पाद को उपभोग की दृजष्ट से नहीं बजल्क महि ददखावे के
मलए खरीदा िा रहा है।
• पवज्ञापनों के प्रभाव से हम ददग्भ्रममत हो रहे हैं।
उपभोक्तावादी संस्कृ तत हमारे दैतिक जीवि को ककस प्रकार प्रभाववत कर
रही है?
गांधी जी िे उपभोक्ता संस्कृ तत को हमारे समाज के लिए चुिौती क्यों कहा है ?
• उपभोक्ता संस्कृ तत से हमारी सांस्कृ ततक अजस्मता का ह्रास हो रहा है। इसके कारण हमारी
सामाजिक नींव खतरे में है।
• मनुष्य की इच्छाएाँ बढ़ती िा रही है, मनुष्य आत्मकें दद्रत होता िा रहा है। सामाजिक दृजष्टकोण
से यह एक बड़ा खतरा है। भपवष्य के मलए यह एक बड़ी चुनौती है, क्योंक्रक यह बदलाव हमें
सामाजिक पतन की ओर अग्रसर कर रहा है।
वस्तु की गुणवत्ता होिी चाहहए या उसका ववज्ञापि
वस्तुओं को खरीदने का आधार उसकी गुणविा होनी चादहए क्योंक्रक पवज्ञापन
के वल उस वस्तु को लुभाने का प्रयास करता है। अक्सर ऐसा देखा िाता है
क्रक अच्छी क्रकस्म की वस्तु का पवज्ञापन साधारण होता है।
हदखावे की संस्कृ तत
“िो ददखता है वही बबकता है” । आि के युग ने इसी कथ्य को स्वीकारा है।
ज़्यादातर लोग अच्छे पवज्ञापन, उत्पाद के प्रततष्िा र्चह्न को देखकर
प्रभापवत होते हैं।
ददखावे की इस संस्कृ तत ने समाि के पवमभन्न वगों के बीच दूररयााँ बढ़ा दी
है। यह संस्कृ तत मनुष्य में भोग की प्रवृतत को बढ़ावा दे रही है। हमें इस पर
तनयंत्रण करना चादहए।
उपभोक्तावादी संस्कृ तत और हमारे रीतत-ररवाज
• उपभोक्तावादी संस्कृ तत से हमारे रीतत-ररवाज़ और त्योहार भी बहुत हद
तक प्रभापवत हुए हैं।
• आि त्योहार, रीतत-ररवाज़ का दायरा सीममत होता िा रहा।
• त्योहारों के नाम पर नए-नए पवज्ञापन भी बनाए िा रहे हैं; िैसे-त्योहारों के
मलए खास घड़ी कापवज्ञापन ददखाया िा रहा है, ममिाई की िगह चॉकलेट
ने ले ली है।
• आि रीतत-ररवाज़ का मतलब एक दूसरे से अच्छा लगना हो गया है। इस
प्रततस्पधाि में रीतत-ररवाज़ों का सही अथि कहीं लुप्त हो गया है।
उपभोक्तावाद ने इस कदर अपनी पहुंच और िड़ िमा मलया है क्रक
इसे समाप्त क्रकया िाना क्रकसी भी रूप में संभव नहीं है| इसीमलए
एक पवकमसत और पररपक्व मानमसकता वाले नागररक को चादहए
क्रक उपभोक्तावाद की सीमा में बंधने के बिाय स्वयं सीमा में
रहकर इसका प्रयोग करे.
तनष्कषि
उपभोक्तावादी संस्कृति

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उपभोक्तावादी संस्कृति

  • 2. • उपभोक्तावाद एक ऐसी आर्थिक प्रक्रिया है जिसका सीधा अथि है क्रक समाि के भीतर व्याप्त प्रत्येक तत्व उपभोग करने योग्य है | • उसे बस सही तरीके से एक िरूरी वस्तु के रूप में बािार में स्थापपत करने की िरूरत है| • उसको खरीदने और बेचने वाले लोग तो स्वत: ही ममल िाएंगे, क्योंक्रक मानव मजस्तष्क चीिों को बहुत िल्दी ग्रहण कर लेता है, और िब एक ही चीि उसे बार- बार बेहद प्रभावी तरीके से ददखाई िाए तो ऐसे हालातों में उस उत्पाद का व्यजक्त के ददल और ददमाग दोनों पर गहरी छाप छोड़ना स्वाभापवक ही है|
  • 3.
  • 4. भारत और उपभोक्तावादी संस्कृ तत • भारत िैसे पवकाशशील देशों में िहााँ साम्राज्यवादी सम्पकि से परम्परागत उत्पादन का ढााँचा टूट गया है और लोगों की बुतनयादी िरूरतों की पूतति के मलए उत्पादन के तेि पवकास की िरूरत है, वहााँ उपभोक्तावाद के असर से पवकास की सम्भावनाएाँ कुं दित हो गयी हैं । • पजचचमी देशों के सम्पकि से इन देशों में एक नया अमभिात वगि पैदा हो गया है जिसने इस उपभोक्तावादी संस्कृ तत को अपना मलया है । • इस वगि में भी उन वस्तुओं की भूख िग गयी है िो पजचचम के पवकमसत समाि में मध्यम वगि और कु शल मिदूरों के एक दहस्से को उपलब्ध होने लगीं हैं । • इन वस्तुओं की उपलजब्ध में उनकी सामाजिक प्रततष्िा में भी बढ़ोतरी हो िाती है । • अत: इस अमभिात वगि में और इसकी देखा-देखी इससे नीचे के मध्यम वगि और तनम्न मध्यम वगि में भी स्कू टर , टी.वी. , फ्रीि और पवमभन्न तरह के सामान और प्रसाधनों को प्राप्त करने की उत्कट अमभलाषा िग गयी है ।
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  • 6. पहला • चूाँक्रक यही वगि देश की रािनीतत में शीषि स्थानों पर है , देश के सीममत साधनों का उपयोग धड़ल्ले से लोगों की आम आवचयकता की वस्तुओं का तनमािण करने के बिाय वैसे उद्योगों और सुपवधाओं के पवकास के मलए हो रहा है जिससे इस वगि की उपभोक्तावादी आकााँक्षाओं की पूतति हो सके । • चूाँक्रक उत्पादन का यह क्षेत्र अततपवकमसत तकनीकी का और पूाँिी प्रधान है , इन उद्योगों के पवकास में पवदेशों पर तनभिरता बढ़ती है । • मशीन , तकनीक और गैरिरूरी वस्तुओं के आयात पर हमारे सीममत पवदेशी मुद्राकोष का क्षय होता है , और हमारा सबसे पवशाल आर्थिक साधन जिसके उपभोग से देश का तेि पवकास सम्भव था – यानी हमारी श्रमशजक्त बेकार पड़ी रह िाती है । • जिन क्षेत्रों में देश का पवशाल िन समुदाय उत्पादन में योगदान दे सकता है उनकी अवहेलना के कारण आम लोगों की िीवनस्तर का या तो पवकास नहीं हो पाता या वह नीचे र्गरता है ।
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  • 8. दूसरा • चूाँक्रक उपभोक्तावाद व्यापक गरीबी के बीच खचीली वस्तुओं की भूख िगाता है , उससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा ममलता है । • चूाँक्रक अमभिातवगि में वस्तुओं का उपाििन ही प्रततष्िा का आधार है , चाहे इन वस्तुओं को कै से भी उपाजिित क्रकया िाय , भ्रष्टाचार को खुली छू ट ममल िाती है । • कम आय वाले अर्धकारी अपने अर्धकारों का दुरपयोग कर िल्दी से िल्दी धनी बन िाना चाहते हैं ताक्रक अनावचयक सामान इकट्िा कर सामाजिक प्रततष्िा प्राप्त कर सकें । • इसी का एक वीभत्स पररणाम दहेि को लेकर हो रहे औरतों पर अत्याचार भी हैं । बड़ी संख्या में मधयमवगि के नौिवान और उनके माता – पपता , िो अपनी आय के बल पर शान बढ़ानेवाली वस्तुओं को नहीं खरीद सकते , दहेि के माध्यम से इस लालसा को ममटाने का सुयोग देखते हैं । • इन वस्तुओं का भूत उनके मसर पर ऐसा सवार होता है क्रक उनमें राक्षसी प्रवृपि िग िाती है और वे बेसहारा बहुओं पर तरह – तरह का अत्याचार करने या उनकी हत्या करने तक से नहीं दहचकते । बहुओं की बढ़ रही हत्याएं इस संस्कृ तत का सीधा पररणाम हैं । डाके िैसे अपराधों के पीछे कु छ ऐसी ही भावना काम करती है । रािनीततक भ्रष्टाचार का तो यह मूल कारण है । • रािनीततक लोगों के हाथ में अर्धकार तो बहुत होते हैं , लेक्रकन िायि ढंग से धन उपाििन की गुंिाइश कम होती है । लेक्रकन चूाँक्रक उनकी प्रततष्िा उनके रहन-सहन के स्तर पर तनभिर करती है , उनके मलए अपने अर्धकारों का दुरुपयोग कर धन इकिा करने का लोभ संवरण करना मुजचकल हो िाता है ।
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  • 10. • इस तरह समाि में जिसके पास धन और पद है और भ्रष्टाचार के अवसर हैं , उनके और आम लोगों के िीवन स्तरों के बीच खाई बढ़ती िाती है । इससे भी शासक और शामसतों के बीच का संवाद सूत्र टूटता है । • सिाधारी लोग आम लोगों की आवचयकताओं के प्रतत संवेदनहीन हो िाते हैं और उत्पादन की ददशा अर्धकार्धक अमभिातवगि की आवचयकताओं से तनधािररत होने लगती है । • इधर आम िरूरतों की वस्तुओं के अभाव में लोगों का असन्तोष उमड़ता एवं उथल – पुथल की अर्धनायकवादी तरीकों से िन-आन्दोलन से तनपटना चाहता है। • तीसरी दुतनया के अर्धकांश देशों में रािनीतत का ऐसा ही अधार बन रहा है , जिसमें सम्पन्न अल्पसंख्यक लोग छल और आतंक के द्वारा आम लोगों के दहत के खखलाफ शासन चलाते हैं ।
  • 11. • उपभोक्तावादी संस्कृ तत ने गााँवों की अथिव्यवस्था के इस पहलू को समाप्त कर ददया है । • अब धीरे – धीरे गााँवों में भी सम्पन्न लोग उन वस्तुओं के पीछे पागल हो रहे हैं िो उपभोक्तावादी संस्कृ तत की देन हैं । • चूाँक्रक गांव के सम्पन्न लोगों की सम्पन्नता भी सीममत होती है अब उनका सारा अततररक्त धन िो पहले सामाजिक कायों में खरच होता था वह तनिी तामझाम पर खरच होने लगा है और लोग गााँव के छोटे से छोटे सामूदहक सेवा कायि के मलए सरकारी सूत्रों पर आर्श्रत होने लगे हैं । • इसके अलावा िो भी थोड़ा गााँवों के भीतर से उनके पवकास के मलए प्राप्त हो सकता था , अब उद्योगपततयों की ततिोररयों में िा रहा है। इससे गााँवों की गरीबी दररद्रता में बदलती िा रही है।
  • 12. • भारत के गााँवों में िो थोड़ा बहुत स्थानीय आर्थिक आधार था उसको भी इस संस्कृ तत ने नष्ट क्रकया है । • भारतीय गााँवों की परम्परागत अथि-व्यवस्था काफी हद तक स्वावलम्बी थी और गााँव की सामूदहक सेवाओं िैसे मसंचाई के साधन ,यातायात या िरूरतमन्दों की सहायता आदद की व्यवस्था गााँव के लोग खुद कर लेते थे । • यह व्यवस्था िड़ और िििर हो गयी थी।और ग्रामीण समाि में काफी गैरबराबरी भी थी , क्रफर भी सामूदहकता का एक भाव था । • हाल तक गााँवों में पैसेवालों की प्रततष्िा इस बात से होती थी क्रक वे साविितनक कामों िैसे कुाँ आ , तालाब आदद खुदवाने , सड़क मरम्मत करवाने, स्कू ल और औषधालय आदद खुलवाने पर धन खरच करें । • इस पर काफी खरच होता था और आिादी के पहले इस तरह की सेवा- व्यवस्था प्राय: ग्रामीण लोगों के ऐसे अनुदान से ही होती थी ।
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  • 14. • यह सम्भव इस मलए होता था क्योंक्रक गााँव के अन्दर धनी लोगों की भी तनिी आवचयकताएाँ बहुत कम थीं और वे अपने धन का व्यय प्रततष्िा प्राप्त करने के मलए ऐसे कामों पर करते थे। • इसी कारण पजचचमी अथिशाजस्त्रयों और समािशाजस्त्रयों की हमेशा यह मशकायत रहती थी क्रक भारतीय गााँवों के उपभोग का स्तर बहुत नीचा है िो उद्योगों के पवकास के मलए एक बड़ी बाधा है । • इन लोगों की दृजष्ट में औध्योर्गक पवकास की प्रथम शति थी अन्तरािष्रीय बािार और पवतनमय में शाममल हो िाना ।
  • 15. • आि की उपभोक्तावादी संस्कृ तत हमारे िीवन पर हावी हो रही है। • मनुष्य आधुतनक बनने की होड़ में बौद्र्धक दासता स्वीकार कर रहे हैं | • आि उत्पाद को उपभोग की दृजष्ट से नहीं बजल्क महि ददखावे के मलए खरीदा िा रहा है। • पवज्ञापनों के प्रभाव से हम ददग्भ्रममत हो रहे हैं। उपभोक्तावादी संस्कृ तत हमारे दैतिक जीवि को ककस प्रकार प्रभाववत कर रही है?
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  • 17. गांधी जी िे उपभोक्ता संस्कृ तत को हमारे समाज के लिए चुिौती क्यों कहा है ? • उपभोक्ता संस्कृ तत से हमारी सांस्कृ ततक अजस्मता का ह्रास हो रहा है। इसके कारण हमारी सामाजिक नींव खतरे में है। • मनुष्य की इच्छाएाँ बढ़ती िा रही है, मनुष्य आत्मकें दद्रत होता िा रहा है। सामाजिक दृजष्टकोण से यह एक बड़ा खतरा है। भपवष्य के मलए यह एक बड़ी चुनौती है, क्योंक्रक यह बदलाव हमें सामाजिक पतन की ओर अग्रसर कर रहा है।
  • 18. वस्तु की गुणवत्ता होिी चाहहए या उसका ववज्ञापि वस्तुओं को खरीदने का आधार उसकी गुणविा होनी चादहए क्योंक्रक पवज्ञापन के वल उस वस्तु को लुभाने का प्रयास करता है। अक्सर ऐसा देखा िाता है क्रक अच्छी क्रकस्म की वस्तु का पवज्ञापन साधारण होता है। हदखावे की संस्कृ तत “िो ददखता है वही बबकता है” । आि के युग ने इसी कथ्य को स्वीकारा है। ज़्यादातर लोग अच्छे पवज्ञापन, उत्पाद के प्रततष्िा र्चह्न को देखकर प्रभापवत होते हैं। ददखावे की इस संस्कृ तत ने समाि के पवमभन्न वगों के बीच दूररयााँ बढ़ा दी है। यह संस्कृ तत मनुष्य में भोग की प्रवृतत को बढ़ावा दे रही है। हमें इस पर तनयंत्रण करना चादहए।
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  • 20. उपभोक्तावादी संस्कृ तत और हमारे रीतत-ररवाज • उपभोक्तावादी संस्कृ तत से हमारे रीतत-ररवाज़ और त्योहार भी बहुत हद तक प्रभापवत हुए हैं। • आि त्योहार, रीतत-ररवाज़ का दायरा सीममत होता िा रहा। • त्योहारों के नाम पर नए-नए पवज्ञापन भी बनाए िा रहे हैं; िैसे-त्योहारों के मलए खास घड़ी कापवज्ञापन ददखाया िा रहा है, ममिाई की िगह चॉकलेट ने ले ली है। • आि रीतत-ररवाज़ का मतलब एक दूसरे से अच्छा लगना हो गया है। इस प्रततस्पधाि में रीतत-ररवाज़ों का सही अथि कहीं लुप्त हो गया है।
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  • 22. उपभोक्तावाद ने इस कदर अपनी पहुंच और िड़ िमा मलया है क्रक इसे समाप्त क्रकया िाना क्रकसी भी रूप में संभव नहीं है| इसीमलए एक पवकमसत और पररपक्व मानमसकता वाले नागररक को चादहए क्रक उपभोक्तावाद की सीमा में बंधने के बिाय स्वयं सीमा में रहकर इसका प्रयोग करे. तनष्कषि