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(अनुबम)
पूज्य बापू का पावन सन्देश
हम धनवान होंगे या नहीं, यशःवी होंगे या नहीं, चुनाव जीतेंगे या नहीं इसमें शंका हो
सकती है परन्तु भैया ! हम मरेंगे या नहीं इसमें कोई शंका है? िवमान उड़ने का समय िनि त
होता है, बस चलने का समय िनि त होता है, गाड़ी छटने का समय िनि त होता है परन्तु इसू
जीवन की गाड़ी के छटने का कोई िनि त समय हैू ?
आज तक आपने जगत का जो कु छ जाना है, जो कु छ ूा िकया है.... आज के बाद जो
जानोगे और ूा करोगे, प्यारे भैया ! वह सब मृत्यु के एक ही झटके में छट जायेगाू , जाना
अनजाना हो जायेगा, ूाि अूाि में बदल जायेगी |
अतः सावधान हो जाओ | अन्तमुर्ख होकर अपने अिवचल आत्मा को, िनजःवरूप के
अगाध आनन्द को, शा त शांित को ूा कर लो | िफर तो आप ही अिवनाशी आत्मा हो |
जागो.... उठो..... अपने भीतर सोये हएु िन यबल को जगाओ | सवर्देश, सवर्काल में
सव म आत्मबल को अिजर्त करो | आत्मा में अथाह सामथ्यर् है | अपने को दीन-हीन मान बैठे
तो िव में ऐसी कोई स ा नहीं जो तुम्हे ऊपर उठा सके | अपने आत्मःवरूप में ूिति त हो
गये तो िऽलोकी में ऐसी कोई हःती नहीं जो तुम्हे दबा सके |
सदा ःमरण रहे िक इधर-उधर वृि यों के साथ तुम्हारी शि भी िबखरती रहती है | अतः
वृि यों को बहकाओ नहीं | तमाम वृि यों को एकिऽत करके साधना-काल में आत्मिचन्तन में
लगाओ और व्यवहार काल में जो कायर् करते हो उसमें लगाओ | द िच होकर हर कोई कायर्
करो | सदा शान्त वृि धारण करने का अभ्यास करो | िवचारवन्त और ूसन्न रहो | जीवमाऽ को
अपना ःवरूप समझो | सबसे ःनेह रखो | िदल को व्यापक रखो | आत्मिन ा में जगे हएु
महापुरुषों के सत्संग तथा सत्सािहत्य से जीवन की भि और वेदान्त से पु तथा पुलिकत करो
|
(अनुबम)
अनुबम
पूज्य बापू का पावन सन्देश ................................................................................................................ 2
ौीमद् भगवदगीता के िवषय में जानने योग्य िवचार ............................................................................ 5
ौीमद् भगवदगीता माहात्म्य ............................................................................................................. 7
गीता में ौीकृ ंण भगवान के नामों के अथर् ......................................................................................... 18
अजुर्न के नामों के अथर्...................................................................................................................... 19
ौीमद् भगवदगीता .......................................................................................................................... 20
पहले अध्याय का माहात्म्य.......................................................................................................... 20
पहला अध्यायःअजुर्निवषादयोग................................................................................................... 23
दसरेू अध्याय का माहात्म्य .......................................................................................................... 31
दसराू अध्यायः सांख्ययोग ........................................................................................................... 33
तीसरे अध्याय का माहात्म्य......................................................................................................... 48
तीसरा अध्यायः कमर्योग ............................................................................................................. 51
चौथे अध्याय का माहात्म्य........................................................................................................... 59
अध्याय चौथाः ज्ञानकमर्सन्यासयोग............................................................................................. 61
पाँचवें अध्याय का माहात्म्य......................................................................................................... 70
पाँचवाँ अध्यायः कमर्संन्यासयोग ................................................................................................. 71
छठे अध्याय का माहात्म्य............................................................................................................ 77
छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग..................................................................................................... 80
सातवें अध्याय का माहात्म्य ........................................................................................................ 89
सातवाँ अध्यायःज्ञानिवज्ञानयोग .................................................................................................. 90
आठवें अध्याय का माहात्म्य ........................................................................................................ 96
आठवाँ अध्यायः अक्षरॄ योग ..................................................................................................... 98
नौवें अध्याय का माहात्म्य ......................................................................................................... 104
दसवें अध्याय का माहात्म्य........................................................................................................ 111
दसवाँ अध्यायः िवभूितयोग........................................................................................................ 114
बारहवें अध्याय का माहात्म्य ..................................................................................................... 137
बारहवाँ अध्यायः भि योग......................................................................................................... 140
तेरहवें अध्याय का माहात्म्य ...................................................................................................... 144
तेरहवाँ अध्यायः क्षेऽक्षऽज्ञिवभागयोग ........................................................................................ 145
चौदहवें अध्याय का माहात्म्य..................................................................................................... 152
चौदहवाँ अध्यायः गुणऽयिवभागयोग.......................................................................................... 153
पंिहवें अध्याय का माहात्म्य...................................................................................................... 159
पंिहवाँ अध्यायः पुरुषो मयोग................................................................................................... 160
सोलहवें अध्याय का माहात्म्य.................................................................................................... 164
सोलहवाँ अध्यायः दैवासुरसंपि भागयोग .................................................................................... 166
सऽहवें अध्याय का माहात्म्य ..................................................................................................... 170
सऽहवाँ अध्यायः ौ ाऽयिवभागयोग .......................................................................................... 170
अठारहवें अध्याय का माहात्म्य .................................................................................................. 175
अठारहवाँ अध्यायः मोक्षसंन्यासयोग.......................................................................................... 176
ौीमद् भगवदगीता के िवषय में जानने योग्य िवचार
गीता मे हृदयं पाथर् गीता मे सारमु मम।्
गीता मे ज्ञानमत्युमं गीता मे ज्ञानमव्ययम।।्
गीता मे चो मं ःथानं गीता मे परमं पदम।्
गीता मे परमं गु ं गीता मे परमो गुरुः।।
गीता मेरा हृदय है | गीता मेरा उ म सार है | गीता मेरा अित उम ज्ञान है | गीता मेरा
अिवनाशी ज्ञान है | गीता मेरा ौे िनवासःथान है | गीता मेरा परम पद है | गीता मेरा परम
रहःय है | गीता मेरा परम गुरु है |
भगवान ौी कृ ंण
गीता सुगीता कतर्व्या िकमन्यैः शा िवःतरैः।
या ःवयं प नाभःय मुखप ाि िनःसृता।।
जो अपने आप ौीिवंणु भगवान के मुखकमल से िनकली हई है वह गीता अच्छी तरहु
कण्ठःथ करना चािहए | अन्य शा ों के िवःतार से क्या लाभ?
महिषर् व्यास
गेयं गीतानामसहॐं ध्येयं ौीपितरूपमजॐम ् ।
नेयं सज्जनसंगे िच ं देयं दीनजनाय च िव म ।।
गाने योग्य गीता तो ौी गीता का और ौी िवंणुसहॐनाम का गान है | धरने योग्य तो
ौी िवंणु भगवान का ध्यान है | िच तो सज्जनों के संग िपरोने योग्य है और िव तो दीन-
दिखु यों को देने योग्य है |
ौीमद् आ शंकराचायर्
गीता में वेदों के तीनों काण्ड ःप िकये गये हैं अतः वह मूितर्मान वेदरूप हैं और उदारता
में तो वह वेद से भी अिधक है | अगर कोई दसरों को गीतामंथ देता है तो जानो िक उसने लोगोंू
के िलए मोक्षसुख का सदाोत खोला है | गीतारूपी माता से मनुंयरूपी बच्चे िवयु होकर भटक
रहे हैं | अतः उनका िमलन कराना यह तो सवर् सज्जनों का मुख्य धमर् है |
संत ज्ञाने र
'ौीमद् भगवदगीता' उपिनषदरूपी बगीचों में से चुने हए आध्याित्मक सत्यरूपी पुंपों सेु
गुँथा हआ पुंपगुच्छ हैु |
ःवामी िववेकानन्द
इस अदभुत मन्थ के 18 छोटे अध्यायों में इतना सारा सत्य, इतना सारा ज्ञान और इतने
सारे उच्च, गम्भीर और साि वक िवचार भरे हए हैं िक वे मनुंय को िनम्नु -से-िनम्न दशा में से
उठा कर देवता के ःथान पर िबठाने की शि रखते हैं | वे पुरुष तथा ि याँ बहत भाग्यशालीु हैं
िजनको इस संसार के अन्धकार से भरे हए सँकरे माग में ूकाु श देने वाला यह छोटा-सा लेिकन
अखूट तेल से भरा हआ धमर्ूदीप ूा हआ हैु ु |
महामना मालवीय जी
एक बार मैंने अपना अंितम समय नजदीक आया हआ महसूस िकयाु तब गीता मेरे िलए
अत्यन्त आ ासनरूप बनी थी | मैं जब-जब बहत भारी मुसीबतों से िघर जाता हँ तबु ू -तब मैं
गीता माता के पास दौड़कर पहँच जाता हँ और गीता माता में से मुझे समाधान न िमला हो ऐसाु ू
कभी नहीं हआ हैु |
महात्मा गाँधी
जीवन के सवागीण िवकास के िलए गीता मंथ अदभुत है | िव की 578 भाषाओं में
गीता का अनुवाद हो चुका है | हर भाषा में कई िचन्तकों, िव ानों और भ ों ने मीमांसाएँ की हैं
और अभी भी हो रही हैं, होती रहेंगी | क्योंिक इस मन्थ में सब देशों, जाितयों, पंथों के तमाम
मनुंयों के कल्याण की अलौिकक साममी भरी हई हैु | अतः हम सबको गीताज्ञान में अवगाहन
करना चािहए | भोग, मोक्ष, िनलपता, िनभर्यता आिद तमाम िदव्य गुणों का िवकास करने वाला
यह गीता मन्थ िव में अि ितय है |
पूज्यपाद ःवामी ौी लीलाशाहजी महाराज
ूाचीन युग की सवर् रमणीय वःतुओं में गीता से ौे कोई वःतु नहीं है | गीता में ऐसा
उ म और सवर्व्यापी ज्ञान है िक उसके रचियता देवता को असंख्य वषर् हो गये िफर भी ऐसा
दसरा एक भी मन्थ नहीं िलखा गया हैू |
अमेिरकन महात्मा थॉरो
थॉरो के िशंय, अमेिरका के सुूिस सािहत्यकार एमसर्न को भी गीता के िलए, अदभुत
आदर था | 'सवर्भुतेषु चात्मानं सवर्भूतािन चात्मिन' यह ोक पढ़ते समय वह नाच उठता था |
बाईबल का मैंने यथाथर् अभ्यास िकया है | उसमें जो िदव्यज्ञान िलखा है वह के वल गीता
के उ रण के रूप में है | मैं ईसाई होते हए भी गीता के ूित इतना सारा आदरभाव इसिलएु
रखता हँ िक िजन गूढ़ ू ों का समाधान पा ात्य लोग अभी तक नहीं खोज पाये हैंू , उनका
समाधान गीता मंथ ने शु और सरल रीित से िदया है | उसमें कई सूऽ अलौिकक उपदेशों से
भरूपूर लगे इसीिलए गीता जी मेरे िलए साक्षात योगे री माता बन रही हैं् | वह तो िव के
तमाम धन से भी नहीं खरीदा जा सके ऐसा भारतवषर् का अमूल्य खजाना है |
एफ.एच.मोलेम (इंग्लैन्ड)
भगवदगीता ऐसे िदव्य ज्ञान से भरपूर है िक उसके अमृतपान से मनुंय के जीवन में
साहस, िहम्मत, समता, सहजता, ःनेह, शािन्त और धमर् आिद दैवी गुण िवकिसत हो उठते हैं,
अधमर् और शोषण का मुकाबला करने का सामथ्यर् आ जाता है | अतः ूत्येक युवक-युवती को
गीता के ोक कण्ठःथ करने चािहए और उनके अथर् में गोता लगा कर अपने जीवन को तेजःवी
बनाना चािहए |
पूज्यपाद संत ौी आसारामजी बापू
ौी गणेशाय नमः
(अनुबम)
ौीमद् भगवदगीता माहात्म्य
धरोवाच
भगवन्परमेशान भि रव्यिभचािरणी ।
ूारब्धं भुज्यमानःय कथं भवित हे ूभो ।।1।।
ौी पृथ्वी देवी ने पूछाः
हे भगवन ! हे परमे र ! हे ूभो ! ूारब्धकमर् को भोगते हए मनुंय को एकिन भिु
कै से ूा हो सकती है?(1)
ौीिवंणुरुवाच
ूारब्धं भुज्यमानो िह गीताभ्यासरतः सदा ।
स मु ः स सुखी लोके कमर्णा नोपिलप्यते ।।2।।
ौी िवंणु भगवान बोलेः
ूारब्ध को भोगता हआ जो मनुंय सदा ौीगीता के अभ्यास में आस हो वही इस लोकु
में मु और सुखी होता है तथा कमर् में लेपायमान नहीं होता |(2)
महापापािदपापािन गीताध्यानं करोित चेत् ।
क्विचत्ःपश न कु वर्िन्त निलनीदलमम्बुवत ् ।।3।।
िजस ूकार कमल के प े को जल ःपशर् नहीं करता उसी ूकार जो मनुंय ौीगीता का
ध्यान करता है उसे महापापािद पाप कभी ःपशर् नहीं करते |(3)
गीतायाः पुःतकं यऽ पाठः ूवतर्ते।
तऽ सवार्िण तीथार्िन ूयागादीिन तऽ वै।।4।।
जहाँ ौीगीता की पुःतक होती है और जहाँ ौीगीता का पाठ होता है वहाँ ूयागािद सवर्
तीथर् िनवास करते हैं |(4)
सव देवा ऋषयो योिगनः पन्नगा ये।
गोपालबालकृ ंणोsिप नारदीुवपाषर्दैः ।।
सहायो जायते शीयं यऽ गीता ूवतर्ते ।।5।।
जहाँ ौीगीता ूवतर्मान है वहाँ सभी देवों, ऋिषयों, योिगयों, नागों और गोपालबाल
ौीकृ ंण भी नारद, ीुव आिद सभी पाषर्दों सिहत जल्दी ही सहायक होते हैं |(5)
यऽगीतािवचार पठनं पाठनं ौुतम ् ।
तऽाहं िनि तं पृिथ्व िनवसािम सदैव िह ।।6।।
जहाँ ौी गीता का िवचार, पठन, पाठन तथा ौवण होता है वहाँ हे पृथ्वी ! मैं अवँय
िनवास करता हँू | (6)
गीताौयेऽहं ित ािम गीता मे चो मं गृहम।्
गीताज्ञानमुपािौत्य ऽींल्लोकान्पालयाम्यहंम।।् 7।।
मैं ौीगीता के आौय में रहता हँू, ौीगीता मेरा उ म घर है और ौीगीता के ज्ञान का
आौय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हँू |(7)
गीता मे परमा िव ा ॄ रूपा न संशयः।
अधर्माऽाक्षरा िनत्या ःविनवार्च्यपदाित्मका।।8।।
ौीगीता अित अवणर्नीय पदोंवाली, अिवनाशी, अधर्माऽा तथा अक्षरःवरूप, िनत्य,
ॄ रूिपणी और परम ौे मेरी िव ा है इसमें सन्देह नहीं है |(8)
िचदानन्देन कृ ंणेन ूो ा ःवमुखतोऽजुर्नम।्
वेदऽयी परानन्दा त वाथर्ज्ञानसंयुता।।9।।
वह ौीगीता िचदानन्द ौीकृ ंण ने अपने मुख से अजुर्न को कही हई तथा तीनों वेदःवरूपु ,
परमानन्दःवरूप तथा त वरूप पदाथर् के ज्ञान से यु है |(9)
योऽ ादशजपो िनत्यं नरो िन लमानसः।
ज्ञानिसि ं स लभते ततो याित परं पदम।।् 10।।
जो मनुंय िःथर मन वाला होकर िनत्य ौी गीता के 18 अध्यायों का जप-पाठ करता है
वह ज्ञानःथ िसि को ूा होता है और िफर परम पद को पाता है |(10)
पाठेऽसमथर्ः संपूण ततोऽध पाठमाचरेत।्
तदा गोदानजं पुण्यं लभते नाऽ संशयः।।11।।
संपूणर् पाठ करने में असमथर् हो तो आधा पाठ करे, तो भी गाय के दान से होने वाले
पुण्य को ूा करता है, इसमें सन्देह नहीं |(11)
िऽभागं पठमानःतु गंगाःनानफलं लभेत।्
षडंशं जपमानःतु सोमयागफलं लभेत।।् 12।।
तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगाःनान का फल ूा करता है और छठवें भाग का पाठ
करे तो सोमयाग का फल पाता है |(12)
एकाध्यायं तु यो िनत्यं पठते भि संयुतः।
रूिलोकमवाप्नोित गणो भूत्वा वसेिच्चरम।।13।।
जो मनुंय भि यु होकर िनत्य एक अध्याय का भी पाठ करता है, वह रुिलोक को
ूा होता है और वहाँ िशवजी का गण बनकर िचरकाल तक िनवास करता है |(13)
अध्याये ोकपादं वा िनत्यं यः पठते नरः।
स याित नरतां यावन्मन्वन्तरं वसुन्धरे।।14।।
हे पृथ्वी ! जो मनुंय िनत्य एक अध्याय एक ोक अथवा ोक के एक चरण का पाठ
करता है वह मन्वंतर तक मनुंयता को ूा करता है |(14)
गीताया ोकदशकं स पंच चतु यम।्
ौ ऽीनेकं तदध वा ोकानां यः पठेन्नरः।।15।।
चन्िलोकमवाप्नोित वषार्णामयुतं ीुवम।्
गीतापाठसमायु ो मृतो मानुषतां ोजेत।।् 16।।
जो मनुंय गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे ोक का पाठ करता है
वह अवँय दस हजार वषर् तक चन्िलोक को ूा होता है | गीता के पाठ में लगे हए मनुंय कीु
अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आिद की अधम योिनयों में न जाकर) पुनः मनुंय जन्म पाता
है |(15,16)
गीताभ्यासं पुनः कृ त्वा लभते मुि मु माम।्
गीतेत्युच्चारसंयु ो िॆयमाणो गितं लभेत।।् 17।।
(और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके उ म मुि को पाता है | 'गीता' ऐसे उच्चार के
साथ जो मरता है वह सदगित को पाता है |
गीताथर्ौवणास ो महापापयुतोऽिप वा।
वैकु ण्ठं समवाप्नोित िवंणुना सह मोदते।।18।।
गीता का अथर् तत्पर सुनने में तत्पर बना हआ मनुंय महापापी हो तो भी वह वैकु ण्ठु
को ूा होता है और िवंणु के साथ आनन्द करता है |(18)
गीताथ ध्यायते िनत्यं कृ त्वा कमार्िण भूिरशः।
जीवन्मु ः स िवज्ञेयो देहांते परमं पदम।।् 19।।
अनेक कमर् करके िनत्य ौी गीता के अथर् का जो िवचार करता है उसे जीवन्मु जानो |
मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता है |(19)
गीतामािौत्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
िनधूर्तकल्मषा लोके गीता याताः परं पदम।।् 20।।
गीता का आौय करके जनक आिद कई राजा पाप रिहत होकर लोक में यशःवी बने हैं
और परम पद को ूा हए हैंु |(20)
गीतायाः पठनं कृ त्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत।्
वृथा पाठो भवे ःय ौम एव ुदाहृतः।।21।।
ौीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठ िनंफल होता है
और ऐसे पाठ को ौमरूप कहा है |(21)
एतन्माहात्म्यसंयु ं गीताभ्यासं करोित यः।
स तत्फलमवाप्नोित दलर्भां गितमाप्नुयात।।ु ् 22।।
इस माहात्म्यसिहत ौीगीता का जो अभ्यास करता है वह उसका फल पाता है और दलर्भु
गित को ूा होता है |(22)
सूत उवाच
माहात्म्यमेतद् गीताया मया ूो ं सनातनम।्
गीतान्ते पठे ःतु यद ं तत्फलं लभेु त।।् 23।।
सूत जी बोलेः
गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा | गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता
है वह उपयुर् फल ूा करता है |(23)
इित ौीवाराहपुराणे ौीमद् गीतामाहात्म्यं संपूणर्म।्
इित ौीवाराहपुराण में ौीमद् गीता माहात्म्य संपूणर्।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)
ौीगीतामाहात्म्य का अनुसंधान
शौनक उवाच
गीताया ैव माहात्म्यं यथावत्सूत मे वद।
पुराणमुिनना ूो ं व्यासेन ौुितनोिदतम।।् 1।।
शौनक ऋिष बोलेः हे सूत जी ! अित पूवर्काल के मुिन ौी व्यासजी के ारा कहा हआु
तथा ौुितयों में विणर्त ौीगीताजी का माहात्म्य मुझे भली ूकार किहए |(1)
सूत उवाच
पृ ं वै भवता य न्महद् गोप्यं पुरातनम।्
न के न शक्यते व ुं गीतामाहात्म्यमु मम।।् 2।।
सूत जी बोलेः आपने जो पुरातन और उ म गीतामाहात्म्य पूछा, वह अितशय गु है |
अतः वह कहने के िलए कोई समथर् नहीं है |(2)
कृ ंणो जानाित वै सम्यक क्विचत्कौन्तेय एव च।्
व्यासो वा व्यासपुऽो वा याज्ञवल्क्योऽथ मैिथलः।।3।।
गीता माहात्म्य को ौीकृ ंण ही भली ूकार जानते हैं, कु छ अजुर्न जानते हैं तथा व्यास,
शुकदेव, याज्ञवल्क्य और जनक आिद थोड़ा-बहत जानते हैंु |(3)
अन्ये ौवणतः ौृत्वा लोके संकीतर्यिन्त च।
तःमाित्कं िच दाम्य व्यासःयाःयान्मया ौुतम।।् 4।।
दसरे लोग कण पकणर् सुनकर लोक में वणर्न करते हैंू | अतः ौीव्यासजी के मुख से मैंने
जो कु छ सुना है वह आज कहता हँू |(4)
गीता सुगीता कतर्व्या िकमन्यैः शा संमहैः।
या ःवयं प नाभःय मुखप ाि िनःसृता।।5।।
जो अपने आप ौीिवंणु भगवान के मुखकमल से िनकली हई है गीता अच्छी तरहु
कण्ठःथ करना चािहए | अन्य शा ों के संमह से क्या लाभ?(5)
यःमा मर्मयी गीता सवर्ज्ञानूयोिजका।
सवर्शा मयी गीता तःमाद् गीता िविशंयते।।6।।
गीता धमर्मय, सवर्ज्ञान की ूयोजक तथा सवर् शा मय है, अतः गीता ौे है |(6)
संसारसागरं घोरं ततुर्िमच्छित यो जनः।
गीतानावं समारू पारं यातु सुखेन सः।।7।।
जो मनुंय घोर संसार-सागर को तैरना चाहता है उसे गीतारूपी नौका पर चढ़कर
सुखपूवर्क पार होना चािहए |(7)
गीताशा िमदं पुण्यं यः पठेत ूयतः पुमान।् ्
िवंणोः पदमवाप्नोित भयशोकािदविजर्तः।।8।।
जो पुरुष इस पिवऽ गीताशा को सावधान होकर पढ़ता है वह भय, शोक आिद से रिहत
होकर ौीिवंणुपद को ूा होता है |(8)
गीताज्ञानं ौुतं नैव सदैवाभ्यासयोगतः।
मोक्षिमच्छित मूढात्मा याित बालकहाःयताम।।् 9।।
िजसने सदैव अभ्यासयोग से गीता का ज्ञान सुना नहीं है िफर भी जो मोक्ष की इच्छा
करता है वह मूढात्मा, बालक की तरह हँसी का पाऽ होता है |(9)
ये ौृण्विन्त पठन्त्येव गीताशा महिनर्शम।्
न ते वै मानुषा ज्ञेया देवा एव न संशयः।।10।।
जो रात-िदन गीताशा पढ़ते हैं अथवा इसका पाठ करते हैं या सुनते हैं उन्हें मनुंय नहीं
अिपतु िनःसन्देह देव ही जानें |(10)
मलिनम चनं पुंसां जलःनानं िदने िदने।
सकृ द् गीताम्भिस ःनानं संसारमलनाशनम।।् 11।।
हर रोज जल से िकया हआ ःनान मनुंयों का मैल दर करता है िकन्तु गीतारूपी जल मेंु ू
एक बार िकया हआ ःनान भी संसाररूपी मैल का नाश करता हैु |(11)
गीताशा ःय जानाित पठनं नैव पाठनम।्
परःमान्न ौुतं ज्ञानं ौ ा न भावना।।12।।
स एव मानुषे लोके पुरुषो िवड्वराहकः।
यःमाद् गीतां न जानाित नाधमःतत्परो जनः।।13।।
जो मनुंय ःवयं गीता शा का पठन-पाठन नहीं जानता है, िजसने अन्य लोगों से वह
नहीं सुना है, ःवयं को उसका ज्ञान नहीं है, िजसको उस पर ौ ा नहीं है, भावना भी नहीं है, वह
मनुंय लोक में भटकते हए शूकर जैसा ही हैु | उससे अिधक नीच दसरा कोई मनुंय नहीं हैू ,
क्योंिक वह गीता को नहीं जानता है |
िधक तःय ज्ञानमाचारं ोतं चे ां तपो यशः।्
गीताथर्पठनं नािःत नाधमःतत्परो जन।।14।।
जो गीता के अथर् का पठन नहीं करता उसके ज्ञान को, आचार को, ोत को, चे ा को, तप
को और यश को िधक्कार है | उससे अधम और कोई मनुंय नहीं है |(14)
गीतागीतं न यज्ज्ञानं ति यासुरसंज्ञकम।्
तन्मोघं धमर्रिहतं वेदवेदान्तगिहर्तम।।् 15।।
जो ज्ञान गीता में नहीं गाया गया है वह वेद और वेदान्त में िनिन्दत होने के कारण उसे
िनंफल, धमर्रिहत और आसुरी जानें |
योऽधीते सततं गीतां िदवाराऽौ यथाथर्तः।
ःवपन्गच्छन्वदंिःत ञ्छा तं मोक्षमाप्नुयात।।् 16।।
जो मनुंय रात-िदन, सोते, चलते, बोलते और खड़े रहते हए गीता का यथाथर्तः सततु
अध्ययन करता है वह सनातन मोक्ष को ूा होता है |(16)
योिगःथाने िस पीठे िश ामे सत्सभासु च।
यज्ञे च िवंणुभ ामे पठन्याित परां गितम।।् 17।।
योिगयों के ःथान में, िस ों के ःथान में, ौे पुरुषों के आगे, संतसभा में, यज्ञःथान में
और िवंणुभ ोंके आगे गीता का पाठ करने वाला मनुंय परम गित को ूा होता है |(17)
गीतापाठं च ौवणं यः करोित िदने िदने।
बतवो वािजमेधा ाः कृ ताःतेन सदिक्षणाः।।18।।
जो गीता का पाठ और ौवण हर रोज करता है उसने दिक्षणा के साथ अ मेध आिद यज्ञ
िकये ऐसा माना जाता है |(18)
गीताऽधीता च येनािप भि भावेन चेतसा।
तेन वेदा शा ािण पुराणािन च सवर्शः।।19।।
िजसने भि भाव से एकाम, िच से गीता का अध्ययन िकया है उसने सवर् वेदों, शा ों
तथा पुराणों का अभ्यास िकया है ऐसा माना जाता है |(19)
यः ौृणोित च गीताथ कीतर्येच्च ःवयं पुमान।्
ौावयेच्च पराथ वै स ूयाित परं पदम।।् 20।।
जो मनुंय ःवयं गीता का अथर् सुनता है, गाता है और परोपकार हेतु सुनाता है वह परम
पद को ूा होता है |(20)
नोपसपर्िन्त तऽैव यऽ गीताचर्नं गृहे।
तापऽयो वाः पीडा नैव व्यािधभयं तथा।।21।।
िजस घर में गीता का पूजन होता है वहाँ (आध्याित्मक, आिधदैिवक और आिधभौितक)
तीन ताप से उत्पन्न होने वाली पीड़ा तथा व्यािधयों का भय नहीं आता है | (21)
न शापो नैव पापं च दगर्ितनं च िकं चन।ु
देहेऽरयः षडेते वै न बाधन्ते कदाचन।।22।।
उसको शाप या पाप नहीं लगता, जरा भी दगर्ित नहीं होती और छः शऽुु (काम, बोध,
लोभ, मोह, मद और मत्सर) देह में पीड़ा नहीं करते | (22)
भगवत्परमेशाने भि रव्यिभचािरणी।
जायते सततं तऽ यऽ गीतािभनन्दनम।।् 23।।
जहाँ िनरन्तर गीता का अिभनंदन होता है वहाँ ौी भगवान परमे र में एकिन भि
उत्पन्न होती है | (23)
ःनातो वा यिद वाऽःनातः शुिचवार् यिद वाऽशुिचः।
िवभूितं िव रूपं च संःमरन्सवर्दा शुिचः।।24।।
ःनान िकया हो या न िकया हो, पिवऽ हो या अपिवऽ हो िफर भी जो परमात्म-िवभूित
का और िव रूप का ःमरण करता है वह सदा पिवऽ है | (24)
सवर्ऽ ूितभो ा च ूितमाही च सवर्शः।
गीतापाठं ूकु वार्णो न िलप्येत कदाचन।।25।।
सब जगह भोजन करने वाला और सवर् ूकार का दान लेने वाला भी अगर गीता पाठ
करता हो तो कभी लेपायमान नहीं होता | (25)
यःयान्तःकरणं िनत्यं गीतायां रमते सदा।
सवार्िग्नकः सदाजापी िबयावान्स च पिण्डतः।।26।।
िजसका िच सदा गीता में ही रमण करता है वह संपूणर् अिग्नहोऽी, सदा जप करनेवाला,
िबयावान तथा पिण्डत है | (26)
दशर्नीयः स धनवान्स योगी ज्ञानवानिप।
स एव यािज्ञको ध्यानी सवर्वेदाथर्दशर्कः।।27।।
वह दशर्न करने योग्य, धनवान, योगी, ज्ञानी, यािज्ञक, ध्यानी तथा सवर् वेद के अथर् को
जानने वाला है | (27)
गीतायाः पुःतकं यऽ िनत्यं पाठे ूवतर्ते।
तऽ सवार्िण तीथार्िन ूयागादीिन भूतले।।28।।
जहाँ गीता की पुःतक का िनत्य पाठ होता रहता है वहाँ पृथ्वी पर के ूयागािद सवर् तीथर्
िनवास करते हैं | (28)
िनवसिन्त सदा गेहे देहेदेशे सदैव िह।
सव देवा ऋषयो योिगनः पन्नगा ये।।29।।
उस घर में और देहरूपी देश में सभी देवों, ऋिषयों, योिगयों और सप का सदा िनवास
होता है |(29)
गीता गंगा च गायऽी सीता सत्या सरःवती।
ॄ िव ा ॄ वल्ली िऽसंध्या मु गेिहनी।।30।।
अधर्माऽा िचदानन्दा भवघ्नी भयनािशनी।
वेदऽयी पराऽनन्ता त वाथर्ज्ञानमंजरी।।31।।
इत्येतािन जपेिन्नत्यं नरो िन लमानसः।
ज्ञानिसि ं लभेच्छीयं तथान्ते परमं पदम।।् 32।।
गीता, गंगा, गायऽी, सीता, सत्या, सरःवती, ॄ िव ा, ॄ वल्ली, िऽसंध्या, मु गेिहनी,
अधर्माऽा, िचदानन्दा, भवघ्नी, भयनािशनी, वेदऽयी, परा, अनन्ता और त वाथर्ज्ञानमंजरी
(त वरूपी अथर् के ज्ञान का भंडार) इस ूकार (गीता के ) अठारह नामों का िःथर मन से जो
मनुंय िनत्य जप करता है वह शीय ज्ञानिसि और अंत में परम पद को ूा होता है |
(30,31,32)
य त्कमर् च सवर्ऽ गीतापाठं करोित वै।
त त्कमर् च िनद षं कृ त्वा पूणर्मवाप्नुयात।।् 33।।
मनुंय जो-जो कमर् करे उसमें अगर गीतापाठ चालू रखता है तो वह सब कमर् िनद षता
से संपूणर् करके उसका फल ूा करता है | (33)
िपतृनु ँय यः ौा े गीतापाठं करोित वै।
संतु ा िपतरःतःय िनरया ािन्त सदगितम।।् 34।।
जो मनुंय ौा में िपतरों को लआय करके गीता का पाठ करता है उसके िपतृ सन्तु
होते हैं और नकर् से सदगित पाते हैं | (34)
गीतापाठेन संतु ाः िपतरः ौा तिपर्ताः।
िपतृलोकं ूयान्त्येव पुऽाशीवार्दतत्पराः।।35।।
गीतापाठ से ूसन्न बने हए तथा ौा से तृ िकये हए िपतृगण पुऽ को आशीवार्द देनेु ु
के िलए तत्पर होकर िपतृलोक में जाते हैं | (35)
िलिखत्वा धारयेत्कण्ठे बाहदण्डे च मःतके ।ु
नँयन्त्युपिवाः सव िवघ्नरूपा दारूणाः।।36।।
जो मनुंय गीता को िलखकर गले में, हाथ में या मःतक पर धारण करता है उसके सवर्
िवघ्नरूप दारूण उपिवों का नाश होता है | (36)
देहं मानुषमािौत्य चातुवर्ण्य तु भारते।
न ौृणोित पठत्येव ताममृतःवरूिपणीम।।् 37।।
हःता या वाऽमृतं ूा ं क ात्आवेडं सम ुते
पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत।।् 38।।
भरतखण्ड में चार वण में मनुंय देह ूा करके भी जो अमृतःवरूप गीता नहीं पढ़ता है
या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हआ अमृत छोड़कर क से िवष खाता हैु | िकन्तु जो मनुंय
गीता सुनता है, पढ़ता तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष ूा कर सुखी
होता है | (37, 38)
जनैः संसारदःखातग ताज्ञानं च यैः ौुतम।ु ्
संूा ममृतं तै गताःते सदनं हरेः।।39।।
संसार के दःखों से पीिड़त िजन मनुंयों ने गीता का ज्ञान सुना हैु उन्होंने अमृत ूा
िकया है और वे ौी हिर के धाम को ूा हो चुके हैं | (39)
गीतामािौत्य बहवो भूभुजो जनकादयः।
िनधूर्तकल्मषा लोके गताःते परमं पदम।।् 40।।
इस लोक में जनकािद की तरह कई राजा गीता का आौय लेकर पापरिहत होकर परम
पद को ूा हए हैंु | (40)
गीतासु न िवशेषोऽिःत जनेषूच्चावचेषु च।
ज्ञानेंवेव सममेषु समा ॄ ःवरूिपणी।।41।।
गीता में उच्च और नीच मनुंय िवषयक भेद ही नहीं हैं, क्योंिक गीता ॄ ःवरूप है अतः
उसका ज्ञान सबके िलए समान है | (41)
यः ौुत्वा नैव गीताथ मोदते परमादरात।्
नैवाप्नोित फलं लोके ूमादाच्च वृथा ौमम।।् 42।।
गीता के अथर् को परम आदर से सुनकर जो आनन्दवान नहीं होता वह मनुंय ूमाद के
कारण इस लोक में फल नहीं ूा करता है िकन्तु व्यथर् ौम ही ूा करता है | (42)
गीतायाः पठनं कृ त्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत।्
वृथा पाठफलं तःय ौम एव ही के वलम।।् 43।।
गीता का पाठ करे जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसके पाठ का फल व्यथर् होता है
और पाठ के वल ौमरूप ही रह जाता है |
एतन्माहात्म्यसंयु ं गीतापाठं करोित यः।
ौ या यः ौृणोत्येव दलर्भां गितमाप्नुयात।।ु ् 44।।
इस माहात्म्य के साथ जो गीता पाठ करता है तथा जो ौ ा से सुनता है वह दलर्भ गितु
को ूा होता है |(44)
माहात्म्यमेतद् गीताया मया ूो ं सनातनम।्
गीतान्ते च पठे ःतु यद ं तत्फलं लभेत।।ु ् 45।।
गीता का सनातन माहात्म्य मैंने कहा है | गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है
वह उपयुर् फल को ूा होता है | (45)
इित ौीवाराहपुराणो तं ौीमदगीतामाहात्म्यानुसंधानं समा मृ ्|
इित ौीवाराहपुराणान्तगर्त ौीमदगीतामाहात्म्यानुंसंधान समा |
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
(अनुबम)
गीता में ौीकृ ंण भगवान के नामों के अथर्
अनन्तरूपः िजनके अनन्त रूप हैं वह |
अच्युतः िजनका कभी क्षय नहीं होता, कभी अधोगित नहीं होती वह |
अिरसूदनः ूय के िबना ही शऽु का नाश करने वाले |
कृ ंणः 'कृ ष ्' स ावाचक है | 'ण' आनन्दवाचक है | इन दोनों के एकत्व का सूचक परॄ भी कृ ंण
कहलाता है |
के शवः क माने ॄ को और ईश Ð िशव को वश में रखने वाले |
के िशिनषूदनः घोड़े का आकार वाले के िश नामक दैत्य का नाश करने वाले |
कमलपऽाक्षः कमल के प े जैसी सुन्दर िवशाल आँखों वाले |
गोिवन्दः गो माने वेदान्त वाक्यों के ारा जो जाने जा सकते हैं |
जगत्पितः जगत के पित |
जगिन्नवासः िजनमें जगत का िनवास है अथवा जो जगत में सवर्ऽ बसे हए हैु |
जनादर्नः द जनों कोु , भ ों के शऽुओं को पीिड़त करने वाले |
देवदेवः देवताओं के पूज्य |
देववरः देवताओं में ौे |
पुरुषो मः क्षर और अक्षर दोनों पुरुषों से उ म अथवा शरीररूपी पुरों में रहने वाले पुरुषों यानी
जीवों से जो अित उ म, परे और िवलक्षण हैं वह |
भगवानः ऐ यर्, धमर्, यश, लआमी, वैराग्य और मोक्ष... ये छः पदाथर् देने वाले अथवा सवर् भूतों
की उत्पि , ूलय, जन्म, मरण तथा िव ा और अिव ा को जानने वाले |
भूतभावनः सवर्भूतों को उत्पन्न करने वाले |
भूतेशः भूतों के ई र, पित |
मधुसूदनः मधु नामक दैत्य को मारने वाले |
महाबाहःू िनमह और अनुमह करने में िजनके हाथ समथर् हैं वह |
माधवः माया के , लआमी के पित |
यादवः यदकु ल में जन्मे हएु ु |
योगिव मः योग जानने वालों में ौे |
वासुदेवः वासुदेव के पुऽ |
वांणयः वृिंण के ईश, ःवामी |
हिरः संसाररूपी दःख हरने वालेु |
(अनुबम)
अजुर्न के नामों के अथर्
अनघः पापरिहत, िनंपाप |
किपध्वजः िजसके ध्वज पर किप माने हनुमान जी हैं वह |
कु रुौे ः कु रुकु ल में उत्पन्न होने वालों में ौे |
कु रुनन्दनः कु रुवंश के राजा के पुऽ |
कु रुूवीरः कु रुकु ल में जन्मे हए पुरुषों में िवशेष तेजःवीु |
कौन्तेयः कुं ती का पुऽ |
गुडाके शः िनिा को जीतने वाला, िनिा का ःवामी अथवा गुडाक माने िशव िजसके ःवामी हैं वह |
धनंजयः िदिग्वजय में सवर् राजाओं को जीतने वाला |
धनुधर्रः धनुष को धारण करने वाला |
परंतपः परम तपःवी अथवा शऽुओं को बहत तपाने वालाु |
पाथर्ः पृथा माने कुं ती का पुऽ |
पुरुषव्यायः पुरुषों में व्याय जैसा |
पुरुषषर्भः पुरुषों में ऋषभ माने ौे |
पाण्डवः पाण्डु का पुऽ |
भरतौे ः भरत के वंशजों में ौे |
भरतस मः भरतवंिशयों में ौे |
भरतषर्भः भरतवंिशयों में ौे |
भारतः भा माने ॄ िव ा में अित ूेमवाला अथवा भरत का वंशज |
महाबाहःु बड़े हाथों वाला |
सव्यसािचन ् बायें हाथ से भी सरसन्धान करने वाला |
(अनुबम)
ौीमद् भगवदगीता
पहले अध्याय का माहात्म्य
ौी पावर्ती जी ने कहाः भगवन ् ! आप सब त वों के ज्ञाता हैं | आपकी कृ पा से मुझे
ौीिवंणु-सम्बन्धी नाना ूकार के धमर् सुनने को िमले, जो समःत लोक का उ ार करने वाले हैं |
देवेश ! अब मैं गीता का माहात्म्य सुनना चाहती हँू, िजसका ौवण करने से ौीहिर की भि
बढ़ती है |
ौी महादेवजी बोलेः िजनका ौीिवमह अलसी के फू ल की भाँित ँयाम वणर् का है, पिक्षराज
गरूड़ ही िजनके वाहन हैं, जो अपनी मिहमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर
शयन करते हैं, उन भगवान महािवंणु की हम उपासना करते हैं |
एक समय की बात है | मुर दैत्य के नाशक भगवान िवंणु शेषनाग के रमणीय आसन
पर सुखपूवर्क िवराजमान थे | उस समय समःत लोकों को आनन्द देने वाली भगवती लआमी ने
आदरपूवर्क ू िकया |
ौीलआमीजी ने पूछाः भगवन ! आप सम्पूणर् जगत का पालन करते हए भी अपने ऐ यर्ु
के ूित उदासीन से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है?
ौीभगवान बोलेः सुमुिख ! मैं नींद नहीं लेता हँू, अिपतु त व का अनुसरण करने वाली
अन्तदृर्ि के ारा अपने ही माहे र तेज का साक्षात्कार कर रहा हँू | यह वही तेज है, िजसका
योगी पुरुष कु शाम बुि के ारा अपने अन्तःकरण में दशर्न करते हैं तथा िजसे मीमांसक िव ान
वेदों का सार-त व िनि चत करते हैं | वह माहे र तेज एक, अजर, ूकाशःवरूप, आत्मरूप, रोग-
शोक से रिहत, अखण्ड आनन्द का पुंज, िनंपन्द तथा ैतरिहत है | इस जगत का जीवन उसी
के अधीन है | मैं उसी का अनुभव करता हँू | देवे िर ! यही कारण है िक मैं तुम्हें नींद लेता सा
ूतीत हो रहा हँू |
ौीलआमीजी ने कहाः हृिषके श ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं | आपके अितिर भी
कोई ध्यान करने योग्य त व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है | इस चराचर जगत
की सृि और संहार करने वाले ःवयं आप ही हैं | आप सवर्समथर् हैं | इस ूकार की िःथित में
होकर भी यिद आप उस परम त व से िभन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये |
ौी भगवान बोलेः िूये ! आत्मा का ःवरूप ैत और अ ैत से पृथक, भाव और अभाव से
मु तथा आिद और अन्त से रिहत है | शु ज्ञान के ूकाश से उपलब्ध होने वाला तथा
परमानन्द ःवरूप होने के कारण एकमाऽ सुन्दर है | वही मेरा ई रीय रूप है | आत्मा का एकत्व
ही सबके ारा जानने योग्य है | गीताशा में इसी का ूितपादन हआ हैु | अिमत तेजःवी
भगवान िवंणु के ये वचन सुनकर लआमी देवी ने शंका उपिःथत करे हए कहाः भगवनु ! यिद
आपका ःवरूप ःवयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहँच के बाहर है तो गीता कै से उसका बोधु
कराती है? मेरे इस संदेह का िनवारण कीिजए |
ौी भगवान बोलेः सुन्दरी ! सुनो, मैं गीता में अपनी िःथित का वणर्न करता हँू | बमश
पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय
को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो | इस ूकार यह अठारह अध्यायों की
वाङमयी ई रीय मूितर् ही समझनी चािहए | यह ज्ञानमाऽ से ही महान पातकों का नाश करने
वाली है | जो उ म बुि वाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या
चौथाई ोक का भी ूितिदन अभ्यास करता है, वह सुशमार् के समान मु हो जाता है |
ौी लआमीजी ने पूछाः देव ! सुशमार् कौन था? िकस जाित का था और िकस कारण से
उसकी मुि हईु ?
ौीभगवान बोलेः िूय ! सुशमार् बड़ी खोटी बुि का मनुंय था | पािपयों का तो वह
िशरोमिण ही था | उसका जन्म वैिदक ज्ञान से शून्य और बू रतापूणर् कमर् करने वाले ॄा णों के
कु ल में हआ थाु | वह न ध्यान करता था, न जप, न होम करता था न अितिथयों का सत्कार |
वह लम्पट होने के कारण सदा िवषयों के सेवन में ही लगा रहता था | हल जोतता और प े
बेचकर जीिवका चलाता था | उसे मिदरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था |
इस ूकार उसने अपने जीवन का दीघर्काल व्यतीत कर िदया | एकिदन मूढ़बुि सुशमार् प े लाने
के िलए िकसी ऋिष की वािटका में घूम रहा था | इसी बीच मे कालरूपधारी काले साँप ने उसे
डँस िलया | सुशमार् की मृत्यु हो गयी | तदनन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ
भोगकर मृत्युलोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हआु | उस समय िकसी पंगु ने
अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के िलए उसे खरीद िलया | बैल ने अपनी पीठ पर पंगु
का भार ढोते हए बड़े क से सातु -आठ वषर् िबताए | एक िदन पंगु ने िकसी ऊँ चे ःथान पर बहतु
देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया | इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर िगरा
और मूिच्छर्त हो गया | उस समय वहाँ कु तूहलवश आकृ हो बहत से लोग एकिऽु त हो गये | उस
जनसमुदाय में से िकसी पुण्यात्मा व्यि ने उस बैल का कल्याण करने के िलए उसे अपना
पुण्य दान िकया | तत्प ात कु छ दसरे लोगों ने भी अपने् ू -अपने पुण्यों को याद करके उन्हें उसके
िलए दान िकया | उस भीड़ में एक वेँया भी खड़ी थी | उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी
उसने लोगों की देखा-देखी उस बैल के िलए कु छ त्याग िकया |
तदनन्तर यमराज के दत उस मरे हए ूाणी को पहले यमपुरी में ले गयेू ु | वहाँ यह
िवचारकर िक यह वेँया के िदये हए पुण्य से पुण्यवान हो गया हैु , उसे छोड़ िदया गया िफर वह
भूलोक में आकर उ म कु ल और शील वाले ॄा णों के घर में उत्पन्न हआु | उस समय भी उसे
अपने पूवर्जन्म की बातों का ःमरण बना रहा | बहत िदनों के बाद अपने अज्ञान को दर करनेु ू
वाले कल्याण-त व का िजज्ञासु होकर वह उस वेँया के पास गया और उसके दान की बात
बतलाते हए उसने पूछाःु 'तुमने कौन सा पुण्य दान िकया था?' वेँया ने उ र िदयाः 'वह िपंजरे
में बैठा हआ तोता ूितिदन कु छ पढ़ता हैु | उससे मेरा अन्तःकरण पिवऽ हो गया है | उसी का
पुण्य मैंने तुम्हारे िलए दान िकया था |' इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा | तब उस तोते ने
अपने पूवर्जन्म का ःमरण करके ूाचीन इितहास कहना आरम्भ िकया |
शुक बोलाः पूवर्जन्म में मैं िव ान होकर भी िव ता के अिभमान से मोिहत रहता था |
मेरा राग- ेष इतना बढ़ गया था िक मैं गुणवान िव ानों के ूित भी ईंयार् भाव रखने लगा |
िफर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृिणत लोकों में भटकता िफरा | उसके बाद
इस लोक में आया | सदगुरु की अत्यन्त िनन्दा करने के कारण तोते के कु ल में मेरा जन्म हआु
| पापी होने के कारण छोटी अवःथा में ही मेरा माता-िपता से िवयोग हो गया | एक िदन मैं
मींम ऋतु में तपे मागर् पर पड़ा था | वहाँ से कु छ ौे मुिन मुझे उठा लाये और महात्माओं के
आौय में आौम के भीतर एक िपंजरे में उन्होंने मुझे डाल िदया | वहीं मुझे पढ़ाया गया | ऋिषयों
के बालक बड़े आदर के साथ गीता के ूथम अध्याय की आवृि करते थे | उन्हीं से सुनकर मैं
भी बारंबार पाठ करने लगा | इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहेिलये ने मुझे वहाँ से चुरा
िलया | तत्प ात इस देवी ने मुझे खरीद िलया् | पूवर्काल में मैंने इस ूथम अध्याय का अभ्यास
िकया था, िजससे मैंने अपने पापों को दर िकया हैू | िफर उसी से इस वेँया का भी अन्तःकरण
शु हआ है और उसी केु पुण्य से ये ि जौे सुशमार् भी पापमु हए हैंु |
इस ूकार परःपर वातार्लाप और गीता के ूथम अध्याय के माहात्म्य की ूशंसा करके वे
तीनों िनरन्तर अपने-अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे, िफर ज्ञान ूा करके वे मु
हो गये | इसिलए जो गीता के ूथम अध्याय को पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है, उसे इस
भवसागर को पार करने में कोई किठनाई नहीं होती |
(अनुबम)
पहला अध्यायःअजुर्निवषादयोग
भगवान ौीकृ ंण ने अजुर्न को िनिम बना कर समःत िव को गीता के रूप में जो
महान उपदेश् िदया है, यह अध्याय उसकी ूःतावना रूप है | उसमें दोनों पक्ष के ूमुख यो ाओं
के नाम िगनाने के बाद मुख्यरूप से अजुर्न को कु टंबनाश की आशंका से उत्पन्न हए मोहजिनतु ु
िवषाद का वणर्न है |
।। अथ ूथमोऽध्यायः ।।
धृतरा उवाच
धमर्क्षेऽे कु रुक्षेऽे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवा ैव िकमकु वर्त संजय।।1।।
धृतरा बोलेः हे संजय ! धमर्भूिम कु रुक्षेऽ में एकिऽत, यु की इच्छावाले मेरे पाण्डु के
पुऽों ने क्या िकया? (1)
संजय उवाच
दृ वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दय धनःतदा।ु
आचायर्मुपसंङगम्य राजा वचनमॄवीत।।् 2।।
संजय बोलेः उस समय राजा दय धन ने व्यूहरचनायु पाण्डवों की सेना को देखकर औरु
िोणाचायर् के पास जाकर यह वचन कहाः (2)
पँयैतां पाण्डुपुऽाणामाचायर् महतीं चमूम।्
व्यूढां िपदपुऽेण तव िशंयेण धीमता।।ु 3।।
हे आचायर् ! आपके बुि मान िशंय िपदपुऽ धृ ुम्न के ारा व्यूहाकार खड़ी की हईु ु
पाण्डुपुऽों की इस बड़ी भारी सेना को देिखये |(3)
अऽ शूरा महेंवासा भीमाजुर्नसमा युिध।
युयुधानो िवराट िपद महारथः।।ु 4।।
धृ के तु ेिकतानः कािशराज वीयर्वान।्
पुरुिजत्कु िन्तभोज शैब्य नरपुंङगवः।।5।।
युधामन्यु िवबान्त उ मौजा वीयर्वान।्
सौभिो िौपदेया सवर् एव महारथाः।।6।।
इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा यु में भीम और अजुर्न के समान शूरवीर सात्यिक
और िवराट तथा महारथी राजा िपदु , धृ के तु और चेिकतान तथा बलवान काशीराज, पुरुिजत,
कु िन्तभोज और मनुंयों में ौे शैब्य, पराबमी, युधामन्यु तथा बलवान उ मौजा, सुभिापुऽ
अिभमन्यु और िौपदी के पाँचों पुऽ ये सभी महारथी हैं | (4,5,6)
अःमाकं तु िविश ा ये तािन्नबोध ि जो म।
नायका मम सैन्यःय संञ्ज्ञाथ तान्ॄवीिम ते।।7।।
हे ॄा णौे ! अपने पक्ष में भी जो ूधान हैं, उनको आप समझ लीिजए | आपकी
जानकारी के िलए मेरी सेना के जो-जो सेनापित हैं, उनको बतलाता हँू |
भवान्भींम कणर् कृ प सिमितंञ्जयः।
अ त्थामा िवकणर् सौमदि ःतथैव च।।8।।
आप, िोणाचायर् और िपतामह भींम तथा कणर् और संमामिवजयी कृ पाचायर् तथा वैसे ही
अ त्थामा, िवकणर् और सोमद का पुऽ भूिरौवा | (8)
अन्ये च बहवः शूरा मदथ त्य जीिवताः।
नानाश ूहरणाः सव यु िवशारदाः।।9।।
और भी मेरे िलए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहत से शूरवीर अनेक ूकार केु
अ ों-श ों से सुसिज्जत और सब के सब यु में चतुर हैं | (9)
अपयार् ं तदःमाकं बलं भींमािभरिक्षतम।्
पयार् ं ित्वदमेतेषां बलं भीमािभरिक्षतम।।् 10।।
भींम िपतामह ारा रिक्षत हमारी वह सेना सब ूकार से अजेय है और भीम ारा रिक्षत
इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है | (10)
अयनेषु च सवषु यथाभागमविःथताः।
भींममेवािभरक्षन्तु भवन्तः सवर् एव िह।।11।।
इसिलए सब मोच पर अपनी-अपनी जगह िःथत रहते हए आप लोग सभी िनःसंदेहु
भींम िपतामह की ही सब ओर से रक्षा करें | (11)
संजय उवाच
तःय संञ्जनयन्हष कु रुवृ ः िपतामहः।
िसंहनादं िवन ोच्चैः शंख्ङं दध्मौ ूतापवान।।् 12।।
कौरवों में वृ बड़े ूतापी िपतामह भींम ने उस दय धन के हृदय में हषर् उत्पन्न करतेु
हए उच्च ःवर से िसंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजायाु | (12)
ततः शंख्ङा भेयर् पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दःतुमुलोऽभवत।।् 13।।
इसके प ात शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरिसंघे आिद बाजे एक साथ ही बज
उठे | उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हआु | (13)
ततः ेतैहर्यैयुर् े महित ःयन्दने िःथतौ।
माधवः पाण्डव ैव िदव्यौ शंख्ङौ ूदध्मतुः।।14।।
इसके अनन्तर सफे द घोड़ों से यु उ म रथ में बैठे हए ौीकृ ंण महाराज और अजुर्न नेु
भी अलौिकक शंख बजाये |(14)
पाञ्चजन्यं हृिषके शो देवद ं धनञ्जयः।
पौण्सं दध्मौ महाशंख्ङं भीमकमार् वृकोदरः।।15।।
ौीकृ ंण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अजुर्न ने देवद नामक और भयानक कमर्वाले
भीमसेन ने पौण्स नामक महाशंख बजाया | (15)
अनन्तिवजयं राजा कु न्तीपुऽो युिधि रः।
नकु लः सहदेव सुघोषमिणपुंपकौ।।16।।
कु न्तीपुऽ राजा युिधि र ने अनन्तिवजय नामक और नकु ल तथा सहदेव ने सुघोष और
मिणपुंपकनामक शंख बजाये | (16)
काँय परमेंवासः िशखण्डी च महारथः।
धृ ुम्नो िवराट साित्यक ापरािजतः।।17।।
िपदो िौपदेया सवर्शः पृिथवीपते।ु
सौभि महाबाहः शंु ख्ङान्दध्मुः पृथक् पृथक्।।18।।
ौे धनुष वाले कािशराज और महारथी िशखण्डी और धृ ुम्न तथा राजा िवराट और
अजेय सात्यिक, राजा िपद और िौपदी के पाँचों पुऽ और बड़ी भुजावाले सुभिापुऽ अिभमन्युु -इन
सभी ने, हे राजन ! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाये |
स घोषो धातर्रा ाणां हृदयािन व्यदारयत।्
नभ पृिथवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन।।् 19।।
और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हए धातर्रा ों के अथार्तु ्
आपके पक्ष वालों के हृदय िवदीणर् कर िदये | (19)
अथ व्यविःथतान्दृंट्वा धातर्रा ान किपध्वजः।्
ूवृ े श सम्पाते धनुरु म्य पाण्डवः।।20।।
हृिषके शं तदा वाक्यिमदमाह महीपते।
अजुर्न उवाच
सेनयोरुभयोमर्ध्ये रथं ःथापय मेऽच्युत।।21।।
हे राजन ! इसके बाद किपध्वज अजुर्न ने मोचार् बाँधकर डटे हए धृतरा सम्बिन्धयों को
देखकर, उस श चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृिषके श ौीकृ ंण महाराज से यह
वचन कहाः हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीिजए |
यावदेतािन्नरीक्षेऽहं योद्ीुकामानविःथतान।्
कै मर्या सह यो व्यमिःमन रणसमु मे।।् 22।।
और जब तक िक मैं यु क्षेऽ में डटे हए यु के अिभलाषी इन िवपक्षी यो ाओं को भलीु
ूकार देख न लूँ िक इस यु रुप व्यापार में मुझे िकन-िकन के साथ यु करना योग्य है, तब
तक उसे खड़ा रिखये | (22)
योत्ःयमानानवेक्षेऽहं य एतेऽऽ समागताः।
धातर्रा ःय दबुर् ेयुर् े िूयिचकीषर्वः।।ु 23।।
दबुर्ि दय धन का यु में िहत चाहने वाले जोु ु -जो ये राजा लोग इस सेना में आये हैं,
इन यु करने वालों को मैं देखूँगा | (23)
संजयउवाच
एवमु ो हृिषके शो गुडाके शेन भारत।
सेनयोरुभयोमर्ध्ये ःथापियत्वा रथो मम।।् 24।।
भींमिोणूमुखतः सवषां च महीिक्षताम।्
उवाच पाथर् पँयैतान समवेतान कु रुिनित।।् ् 25।।
संजय बोलेः हे धृतरा ! अजुर्न ारा इस ूकार कहे हए महाराज ौीकृ ंणचन्ि ने दोनोंु
सेनाओं के बीच में भींम और िोणाचायर् के सामने तथा सम्पूणर् राजाओं के सामने उ म रथ को
खड़ा करके इस ूकार कहा िक हे पाथर् ! यु के िलए जुटे हए इन कौरवों को देखु | (24,25)
तऽापँयित्ःथतान पाथर्ः िपतृनथ िपतामहान।् ्
आचायार्न्मातुलान्ॅातृन्पुऽान्पौऽान्सखींःतथा।।26।।
शुरान सुहृद ैव सेनयोरूभयोरिप।्
तान्समीआय स कौन्तेय़ः सवार्न्बन्धूनविःथतान।।् 27।।
कृ पया परयािव ो िवषीदिन्नमॄवीत।्
इसके बाद पृथापुऽ अजुर्न ने उन दोनों सेनाओं में िःथत ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को,
गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुऽों को, पौऽों को तथा िमऽों को, ससुरों को और सुहृदों को
भी देखा | उन उपिःथत सम्पूणर् बन्धुओं को देखकर वे कु न्तीपुऽ अजुर्न अत्यन्त करूणा से यु
होकर शोक करते हए यह वचु न बोले |(26,27)
अजुर्न उवाच
दृंट्वेमं ःवजनं कृ ंण युयुत्सुं समुपिःथतम।।् 28।
सीदिन्त मम गाऽािण मुखं च पिरशुंयित।
वेपथु शरीरे मे रोमहषर् जायते।।29।।
अजुर्न बोलेः हे कृ ंण ! यु क्षेऽ में डटे हए यु के अिभलाषी इस ःवजनु -समुदाय को
देखकर मेरे अंग िशिथल हए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प औरु
रोमांच हो रहा है |
गाण्डीवं ंसते हःता वक्चैव पिरद ते।
न च शक्नोम्यवःथातुं ॅमतीव च मे मनः।।30।।
हाथ से गाण्डीव धनुष िगर रहा है और त्वचा भी बहत जल रही है तथा मेरा मन ॅु िमत
हो रहा है, इसिलए मैं खड़ा रहने को भी समथर् नहीं हँू |(30)
िनिम ािन च पँयािम िवपरीतािन के शव।
न च ौेयोऽनुपँयािम हत्वा ःवजनमाहवे।।31।।
हे के शव ! मैं लआणों को भी िवपरीत देख रहा हँ तथा यु में ःवजनू -समुदाय को मारकर
कल्याण भी नहीं देखता | (31)
न कांक्षे िवजयं कृ ंण न च राज्यं सुखािन च।
िकं नो राज्येन गोिवन्द िकं भोगैज िवतेन वा।।32।।
हे कृ ंण ! मैं न तो िवजय चाहता हँ और न राज्य तथा सुखों को हीू | हे गोिवन्द ! हमें
ऐसे राज्य से क्या ूयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? (32)
येषामथ कांिक्षतं नो राज्यं भोगाः सुखािन च।
त इमेऽविःथता यु े ूाणांःत्य वा धनािन च।।33।।
हमें िजनके िलए राज्य, भोग और सुखािद अभी हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की
आशा को त्यागकर यु में खड़े हैं | (33)
आचायार्ः िपतरः पुऽाःतथैव च िपतामहाः।
मातुलाः शुराः पौऽाः ँयालाः सम्बिन्धनःतथा।।34।।
गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी ूकार दादे, मामे, ससुर, पौऽ, साले तथा और भी
सम्बन्धी लोग हैं | (34)
एतान्न हन्तुिमच्छािम घ्नतोऽिप मधुसूदन।
अिप ऽैलोक्यराज्यःय हेतोः िकं नु महीकृ ते।।35।।
हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के िलए भी मैं इन सबको
मारना नहीं चाहता, िफर पृथ्वी के िलए तो कहना ही क्या? (35)
िनहत्य धातर्रा ान्नः का ूीितः ःयाज्जनादर्न।
पापमेवाौयेदःमान हत्वैतानातताियनः।।् 36।।
हे जनादर्न ! धृतरा के पुऽों को मारकर हमें क्या ूसन्नता होगी? इन आततािययों को
मारकर तो हमें पाप ही लगेगा | (36)
तःमान्नाहार् वयं हन्तुं धातर्रा ान ःवबान्धवान।् ्
ःवजनं िह कथं हत्वा सुिखनः ःयाम माधव।।37।।
अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतरा के पुऽों को मारने के िलए हम योग्य नहीं
हैं, क्योंिक अपने ही कु टम्ब को मारकर हम कै से सुखी होंगेु ? (37)
य प्येते न पँयिन्त लोभोपहतचेतसः।
कु लक्षयकृ तं दोषं िमऽिोहे च पातकम।।् 38।।
कथं न ज्ञेयमःमािभः पापादःमािन्नवितर्तुम।्
कु लक्षयकृ तं दोषं ूपँयि जर्नादर्न।।39।।
य िप लोभ से ॅ िच हए ये लोग कु ल के नाश से उत्पन्न दोष को और िमऽों सेु
िवरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनादर्न ! कु ल के नाश से उत्पन्न दोष को
जाननेवाले हम लोगों को इस पाप से हटने के िलए क्यों नहीं िवचार करना चािहए?
कु लक्षये ूणँयिन्त कु लधमार्ः सनातनाः।
धम न े कु लं कृ त्ःनमधम ऽिभभवत्युत।।40।।
कु ल के नाश से सनातन कु लधमर् न हो जाते हैं, धमर् के नाश हो जाने पर सम्पूणर् कु ल
में पाप भी बहत फै ल जाता हैु |(40)
अधमार्िभभवात्कृ ंण ूदंयिन्त कु लि यः।ु
ीषु द ासु वांणय जायु ते वणर्संकरः।।41।।
हे कृ ंण ! पाप के अिधक बढ़ जाने से कु ल की ि याँ अत्यन्त दिषत हो जाती हैं और हेू
वांणय ! ि यों के दिषत हो जाने पर वणर्संकर उत्पन्न होता हैू |(41)
संकरो नरकायैव कु लघ्नानां कु लःय च।
पतिन्त िपतरो ेषां लु िपण्डोदकिबयाः।।42।।
वणर्संकर कु लघाितयों को और कु ल को नरक में ले जाने के िलए ही होता है | लु हईु
िपण्ड और जल की िबयावाले अथार्त ौा और तपर्ण से वंिचत इनके िपतर लोग भी अधोगित्
को ूा होते हैं |(42)
दोषैरेतैः कु लघ्नानां वणर्संकरकारकै ः।
उत्सा न्ते जाितधमार्ः कु लधमार् शा ताः।।43।।
इन वणर्संकरकारक दोषों से कु लघाितयों के सनातन कु ल धमर् और जाित धमर् न हो
जाते हैं | (43)
उत्सन्कु लधमार्णां मनुंयाणां जनादर्न।
नरके ऽिनयतं वासो भवतीत्यनुशुौुम।।44।।
हे जनादर्न ! िजनका कु लधमर् न हो गया है, ऐसे मनुंयों का अिनि त काल तक नरक
में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं |
अहो बत महत्पापं कतु व्यविसता वयम।्
यिाज्यसुखलोभेन हन्तुं ःवजनमु ताः।।45।।
हा ! शोक ! हम लोग बुि मान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो
राज्य और सुख के लोभ से ःवजनों को मारने के िलए उ त हो गये हैं | (45)
यिद मामूतीकारमश ं श पाणयः।
धातर्रा ा रणे हन्युःतन्मे क्षेमतरं भवेत।।् 46।।
यिद मुझ श रिहत और सामना न करने वाले को श हाथ में िलए हए धृतरा के पुऽु
रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे िलए अिधक कल्याणकारक होगा | (46)
संजय उवाच
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  • 2. पूज्य बापू का पावन सन्देश हम धनवान होंगे या नहीं, यशःवी होंगे या नहीं, चुनाव जीतेंगे या नहीं इसमें शंका हो सकती है परन्तु भैया ! हम मरेंगे या नहीं इसमें कोई शंका है? िवमान उड़ने का समय िनि त होता है, बस चलने का समय िनि त होता है, गाड़ी छटने का समय िनि त होता है परन्तु इसू जीवन की गाड़ी के छटने का कोई िनि त समय हैू ? आज तक आपने जगत का जो कु छ जाना है, जो कु छ ूा िकया है.... आज के बाद जो जानोगे और ूा करोगे, प्यारे भैया ! वह सब मृत्यु के एक ही झटके में छट जायेगाू , जाना अनजाना हो जायेगा, ूाि अूाि में बदल जायेगी | अतः सावधान हो जाओ | अन्तमुर्ख होकर अपने अिवचल आत्मा को, िनजःवरूप के अगाध आनन्द को, शा त शांित को ूा कर लो | िफर तो आप ही अिवनाशी आत्मा हो | जागो.... उठो..... अपने भीतर सोये हएु िन यबल को जगाओ | सवर्देश, सवर्काल में सव म आत्मबल को अिजर्त करो | आत्मा में अथाह सामथ्यर् है | अपने को दीन-हीन मान बैठे तो िव में ऐसी कोई स ा नहीं जो तुम्हे ऊपर उठा सके | अपने आत्मःवरूप में ूिति त हो गये तो िऽलोकी में ऐसी कोई हःती नहीं जो तुम्हे दबा सके | सदा ःमरण रहे िक इधर-उधर वृि यों के साथ तुम्हारी शि भी िबखरती रहती है | अतः वृि यों को बहकाओ नहीं | तमाम वृि यों को एकिऽत करके साधना-काल में आत्मिचन्तन में लगाओ और व्यवहार काल में जो कायर् करते हो उसमें लगाओ | द िच होकर हर कोई कायर् करो | सदा शान्त वृि धारण करने का अभ्यास करो | िवचारवन्त और ूसन्न रहो | जीवमाऽ को अपना ःवरूप समझो | सबसे ःनेह रखो | िदल को व्यापक रखो | आत्मिन ा में जगे हएु महापुरुषों के सत्संग तथा सत्सािहत्य से जीवन की भि और वेदान्त से पु तथा पुलिकत करो | (अनुबम)
  • 3. अनुबम पूज्य बापू का पावन सन्देश ................................................................................................................ 2 ौीमद् भगवदगीता के िवषय में जानने योग्य िवचार ............................................................................ 5 ौीमद् भगवदगीता माहात्म्य ............................................................................................................. 7 गीता में ौीकृ ंण भगवान के नामों के अथर् ......................................................................................... 18 अजुर्न के नामों के अथर्...................................................................................................................... 19 ौीमद् भगवदगीता .......................................................................................................................... 20 पहले अध्याय का माहात्म्य.......................................................................................................... 20 पहला अध्यायःअजुर्निवषादयोग................................................................................................... 23 दसरेू अध्याय का माहात्म्य .......................................................................................................... 31 दसराू अध्यायः सांख्ययोग ........................................................................................................... 33 तीसरे अध्याय का माहात्म्य......................................................................................................... 48 तीसरा अध्यायः कमर्योग ............................................................................................................. 51 चौथे अध्याय का माहात्म्य........................................................................................................... 59 अध्याय चौथाः ज्ञानकमर्सन्यासयोग............................................................................................. 61 पाँचवें अध्याय का माहात्म्य......................................................................................................... 70 पाँचवाँ अध्यायः कमर्संन्यासयोग ................................................................................................. 71 छठे अध्याय का माहात्म्य............................................................................................................ 77 छठा अध्यायः आत्मसंयमयोग..................................................................................................... 80 सातवें अध्याय का माहात्म्य ........................................................................................................ 89 सातवाँ अध्यायःज्ञानिवज्ञानयोग .................................................................................................. 90 आठवें अध्याय का माहात्म्य ........................................................................................................ 96 आठवाँ अध्यायः अक्षरॄ योग ..................................................................................................... 98 नौवें अध्याय का माहात्म्य ......................................................................................................... 104 दसवें अध्याय का माहात्म्य........................................................................................................ 111 दसवाँ अध्यायः िवभूितयोग........................................................................................................ 114 बारहवें अध्याय का माहात्म्य ..................................................................................................... 137 बारहवाँ अध्यायः भि योग......................................................................................................... 140 तेरहवें अध्याय का माहात्म्य ...................................................................................................... 144 तेरहवाँ अध्यायः क्षेऽक्षऽज्ञिवभागयोग ........................................................................................ 145 चौदहवें अध्याय का माहात्म्य..................................................................................................... 152
  • 4. चौदहवाँ अध्यायः गुणऽयिवभागयोग.......................................................................................... 153 पंिहवें अध्याय का माहात्म्य...................................................................................................... 159 पंिहवाँ अध्यायः पुरुषो मयोग................................................................................................... 160 सोलहवें अध्याय का माहात्म्य.................................................................................................... 164 सोलहवाँ अध्यायः दैवासुरसंपि भागयोग .................................................................................... 166 सऽहवें अध्याय का माहात्म्य ..................................................................................................... 170 सऽहवाँ अध्यायः ौ ाऽयिवभागयोग .......................................................................................... 170 अठारहवें अध्याय का माहात्म्य .................................................................................................. 175 अठारहवाँ अध्यायः मोक्षसंन्यासयोग.......................................................................................... 176
  • 5. ौीमद् भगवदगीता के िवषय में जानने योग्य िवचार गीता मे हृदयं पाथर् गीता मे सारमु मम।् गीता मे ज्ञानमत्युमं गीता मे ज्ञानमव्ययम।।् गीता मे चो मं ःथानं गीता मे परमं पदम।् गीता मे परमं गु ं गीता मे परमो गुरुः।। गीता मेरा हृदय है | गीता मेरा उ म सार है | गीता मेरा अित उम ज्ञान है | गीता मेरा अिवनाशी ज्ञान है | गीता मेरा ौे िनवासःथान है | गीता मेरा परम पद है | गीता मेरा परम रहःय है | गीता मेरा परम गुरु है | भगवान ौी कृ ंण गीता सुगीता कतर्व्या िकमन्यैः शा िवःतरैः। या ःवयं प नाभःय मुखप ाि िनःसृता।। जो अपने आप ौीिवंणु भगवान के मुखकमल से िनकली हई है वह गीता अच्छी तरहु कण्ठःथ करना चािहए | अन्य शा ों के िवःतार से क्या लाभ? महिषर् व्यास गेयं गीतानामसहॐं ध्येयं ौीपितरूपमजॐम ् । नेयं सज्जनसंगे िच ं देयं दीनजनाय च िव म ।। गाने योग्य गीता तो ौी गीता का और ौी िवंणुसहॐनाम का गान है | धरने योग्य तो ौी िवंणु भगवान का ध्यान है | िच तो सज्जनों के संग िपरोने योग्य है और िव तो दीन- दिखु यों को देने योग्य है | ौीमद् आ शंकराचायर् गीता में वेदों के तीनों काण्ड ःप िकये गये हैं अतः वह मूितर्मान वेदरूप हैं और उदारता में तो वह वेद से भी अिधक है | अगर कोई दसरों को गीतामंथ देता है तो जानो िक उसने लोगोंू के िलए मोक्षसुख का सदाोत खोला है | गीतारूपी माता से मनुंयरूपी बच्चे िवयु होकर भटक रहे हैं | अतः उनका िमलन कराना यह तो सवर् सज्जनों का मुख्य धमर् है | संत ज्ञाने र 'ौीमद् भगवदगीता' उपिनषदरूपी बगीचों में से चुने हए आध्याित्मक सत्यरूपी पुंपों सेु गुँथा हआ पुंपगुच्छ हैु | ःवामी िववेकानन्द इस अदभुत मन्थ के 18 छोटे अध्यायों में इतना सारा सत्य, इतना सारा ज्ञान और इतने सारे उच्च, गम्भीर और साि वक िवचार भरे हए हैं िक वे मनुंय को िनम्नु -से-िनम्न दशा में से
  • 6. उठा कर देवता के ःथान पर िबठाने की शि रखते हैं | वे पुरुष तथा ि याँ बहत भाग्यशालीु हैं िजनको इस संसार के अन्धकार से भरे हए सँकरे माग में ूकाु श देने वाला यह छोटा-सा लेिकन अखूट तेल से भरा हआ धमर्ूदीप ूा हआ हैु ु | महामना मालवीय जी एक बार मैंने अपना अंितम समय नजदीक आया हआ महसूस िकयाु तब गीता मेरे िलए अत्यन्त आ ासनरूप बनी थी | मैं जब-जब बहत भारी मुसीबतों से िघर जाता हँ तबु ू -तब मैं गीता माता के पास दौड़कर पहँच जाता हँ और गीता माता में से मुझे समाधान न िमला हो ऐसाु ू कभी नहीं हआ हैु | महात्मा गाँधी जीवन के सवागीण िवकास के िलए गीता मंथ अदभुत है | िव की 578 भाषाओं में गीता का अनुवाद हो चुका है | हर भाषा में कई िचन्तकों, िव ानों और भ ों ने मीमांसाएँ की हैं और अभी भी हो रही हैं, होती रहेंगी | क्योंिक इस मन्थ में सब देशों, जाितयों, पंथों के तमाम मनुंयों के कल्याण की अलौिकक साममी भरी हई हैु | अतः हम सबको गीताज्ञान में अवगाहन करना चािहए | भोग, मोक्ष, िनलपता, िनभर्यता आिद तमाम िदव्य गुणों का िवकास करने वाला यह गीता मन्थ िव में अि ितय है | पूज्यपाद ःवामी ौी लीलाशाहजी महाराज ूाचीन युग की सवर् रमणीय वःतुओं में गीता से ौे कोई वःतु नहीं है | गीता में ऐसा उ म और सवर्व्यापी ज्ञान है िक उसके रचियता देवता को असंख्य वषर् हो गये िफर भी ऐसा दसरा एक भी मन्थ नहीं िलखा गया हैू | अमेिरकन महात्मा थॉरो थॉरो के िशंय, अमेिरका के सुूिस सािहत्यकार एमसर्न को भी गीता के िलए, अदभुत आदर था | 'सवर्भुतेषु चात्मानं सवर्भूतािन चात्मिन' यह ोक पढ़ते समय वह नाच उठता था | बाईबल का मैंने यथाथर् अभ्यास िकया है | उसमें जो िदव्यज्ञान िलखा है वह के वल गीता के उ रण के रूप में है | मैं ईसाई होते हए भी गीता के ूित इतना सारा आदरभाव इसिलएु रखता हँ िक िजन गूढ़ ू ों का समाधान पा ात्य लोग अभी तक नहीं खोज पाये हैंू , उनका समाधान गीता मंथ ने शु और सरल रीित से िदया है | उसमें कई सूऽ अलौिकक उपदेशों से भरूपूर लगे इसीिलए गीता जी मेरे िलए साक्षात योगे री माता बन रही हैं् | वह तो िव के तमाम धन से भी नहीं खरीदा जा सके ऐसा भारतवषर् का अमूल्य खजाना है | एफ.एच.मोलेम (इंग्लैन्ड) भगवदगीता ऐसे िदव्य ज्ञान से भरपूर है िक उसके अमृतपान से मनुंय के जीवन में साहस, िहम्मत, समता, सहजता, ःनेह, शािन्त और धमर् आिद दैवी गुण िवकिसत हो उठते हैं,
  • 7. अधमर् और शोषण का मुकाबला करने का सामथ्यर् आ जाता है | अतः ूत्येक युवक-युवती को गीता के ोक कण्ठःथ करने चािहए और उनके अथर् में गोता लगा कर अपने जीवन को तेजःवी बनाना चािहए | पूज्यपाद संत ौी आसारामजी बापू ौी गणेशाय नमः (अनुबम) ौीमद् भगवदगीता माहात्म्य धरोवाच भगवन्परमेशान भि रव्यिभचािरणी । ूारब्धं भुज्यमानःय कथं भवित हे ूभो ।।1।। ौी पृथ्वी देवी ने पूछाः हे भगवन ! हे परमे र ! हे ूभो ! ूारब्धकमर् को भोगते हए मनुंय को एकिन भिु कै से ूा हो सकती है?(1) ौीिवंणुरुवाच ूारब्धं भुज्यमानो िह गीताभ्यासरतः सदा । स मु ः स सुखी लोके कमर्णा नोपिलप्यते ।।2।। ौी िवंणु भगवान बोलेः ूारब्ध को भोगता हआ जो मनुंय सदा ौीगीता के अभ्यास में आस हो वही इस लोकु में मु और सुखी होता है तथा कमर् में लेपायमान नहीं होता |(2) महापापािदपापािन गीताध्यानं करोित चेत् । क्विचत्ःपश न कु वर्िन्त निलनीदलमम्बुवत ् ।।3।। िजस ूकार कमल के प े को जल ःपशर् नहीं करता उसी ूकार जो मनुंय ौीगीता का ध्यान करता है उसे महापापािद पाप कभी ःपशर् नहीं करते |(3) गीतायाः पुःतकं यऽ पाठः ूवतर्ते। तऽ सवार्िण तीथार्िन ूयागादीिन तऽ वै।।4।। जहाँ ौीगीता की पुःतक होती है और जहाँ ौीगीता का पाठ होता है वहाँ ूयागािद सवर् तीथर् िनवास करते हैं |(4) सव देवा ऋषयो योिगनः पन्नगा ये।
  • 8. गोपालबालकृ ंणोsिप नारदीुवपाषर्दैः ।। सहायो जायते शीयं यऽ गीता ूवतर्ते ।।5।। जहाँ ौीगीता ूवतर्मान है वहाँ सभी देवों, ऋिषयों, योिगयों, नागों और गोपालबाल ौीकृ ंण भी नारद, ीुव आिद सभी पाषर्दों सिहत जल्दी ही सहायक होते हैं |(5) यऽगीतािवचार पठनं पाठनं ौुतम ् । तऽाहं िनि तं पृिथ्व िनवसािम सदैव िह ।।6।। जहाँ ौी गीता का िवचार, पठन, पाठन तथा ौवण होता है वहाँ हे पृथ्वी ! मैं अवँय िनवास करता हँू | (6) गीताौयेऽहं ित ािम गीता मे चो मं गृहम।् गीताज्ञानमुपािौत्य ऽींल्लोकान्पालयाम्यहंम।।् 7।। मैं ौीगीता के आौय में रहता हँू, ौीगीता मेरा उ म घर है और ौीगीता के ज्ञान का आौय करके मैं तीनों लोकों का पालन करता हँू |(7) गीता मे परमा िव ा ॄ रूपा न संशयः। अधर्माऽाक्षरा िनत्या ःविनवार्च्यपदाित्मका।।8।। ौीगीता अित अवणर्नीय पदोंवाली, अिवनाशी, अधर्माऽा तथा अक्षरःवरूप, िनत्य, ॄ रूिपणी और परम ौे मेरी िव ा है इसमें सन्देह नहीं है |(8) िचदानन्देन कृ ंणेन ूो ा ःवमुखतोऽजुर्नम।् वेदऽयी परानन्दा त वाथर्ज्ञानसंयुता।।9।। वह ौीगीता िचदानन्द ौीकृ ंण ने अपने मुख से अजुर्न को कही हई तथा तीनों वेदःवरूपु , परमानन्दःवरूप तथा त वरूप पदाथर् के ज्ञान से यु है |(9) योऽ ादशजपो िनत्यं नरो िन लमानसः। ज्ञानिसि ं स लभते ततो याित परं पदम।।् 10।। जो मनुंय िःथर मन वाला होकर िनत्य ौी गीता के 18 अध्यायों का जप-पाठ करता है वह ज्ञानःथ िसि को ूा होता है और िफर परम पद को पाता है |(10) पाठेऽसमथर्ः संपूण ततोऽध पाठमाचरेत।् तदा गोदानजं पुण्यं लभते नाऽ संशयः।।11।। संपूणर् पाठ करने में असमथर् हो तो आधा पाठ करे, तो भी गाय के दान से होने वाले पुण्य को ूा करता है, इसमें सन्देह नहीं |(11) िऽभागं पठमानःतु गंगाःनानफलं लभेत।् षडंशं जपमानःतु सोमयागफलं लभेत।।् 12।।
  • 9. तीसरे भाग का पाठ करे तो गंगाःनान का फल ूा करता है और छठवें भाग का पाठ करे तो सोमयाग का फल पाता है |(12) एकाध्यायं तु यो िनत्यं पठते भि संयुतः। रूिलोकमवाप्नोित गणो भूत्वा वसेिच्चरम।।13।। जो मनुंय भि यु होकर िनत्य एक अध्याय का भी पाठ करता है, वह रुिलोक को ूा होता है और वहाँ िशवजी का गण बनकर िचरकाल तक िनवास करता है |(13) अध्याये ोकपादं वा िनत्यं यः पठते नरः। स याित नरतां यावन्मन्वन्तरं वसुन्धरे।।14।। हे पृथ्वी ! जो मनुंय िनत्य एक अध्याय एक ोक अथवा ोक के एक चरण का पाठ करता है वह मन्वंतर तक मनुंयता को ूा करता है |(14) गीताया ोकदशकं स पंच चतु यम।् ौ ऽीनेकं तदध वा ोकानां यः पठेन्नरः।।15।। चन्िलोकमवाप्नोित वषार्णामयुतं ीुवम।् गीतापाठसमायु ो मृतो मानुषतां ोजेत।।् 16।। जो मनुंय गीता के दस, सात, पाँच, चार, तीन, दो, एक या आधे ोक का पाठ करता है वह अवँय दस हजार वषर् तक चन्िलोक को ूा होता है | गीता के पाठ में लगे हए मनुंय कीु अगर मृत्यु होती है तो वह (पशु आिद की अधम योिनयों में न जाकर) पुनः मनुंय जन्म पाता है |(15,16) गीताभ्यासं पुनः कृ त्वा लभते मुि मु माम।् गीतेत्युच्चारसंयु ो िॆयमाणो गितं लभेत।।् 17।। (और वहाँ) गीता का पुनः अभ्यास करके उ म मुि को पाता है | 'गीता' ऐसे उच्चार के साथ जो मरता है वह सदगित को पाता है | गीताथर्ौवणास ो महापापयुतोऽिप वा। वैकु ण्ठं समवाप्नोित िवंणुना सह मोदते।।18।। गीता का अथर् तत्पर सुनने में तत्पर बना हआ मनुंय महापापी हो तो भी वह वैकु ण्ठु को ूा होता है और िवंणु के साथ आनन्द करता है |(18)
  • 10. गीताथ ध्यायते िनत्यं कृ त्वा कमार्िण भूिरशः। जीवन्मु ः स िवज्ञेयो देहांते परमं पदम।।् 19।। अनेक कमर् करके िनत्य ौी गीता के अथर् का जो िवचार करता है उसे जीवन्मु जानो | मृत्यु के बाद वह परम पद को पाता है |(19) गीतामािौत्य बहवो भूभुजो जनकादयः। िनधूर्तकल्मषा लोके गीता याताः परं पदम।।् 20।। गीता का आौय करके जनक आिद कई राजा पाप रिहत होकर लोक में यशःवी बने हैं और परम पद को ूा हए हैंु |(20) गीतायाः पठनं कृ त्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत।् वृथा पाठो भवे ःय ौम एव ुदाहृतः।।21।। ौीगीता का पाठ करके जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसका पाठ िनंफल होता है और ऐसे पाठ को ौमरूप कहा है |(21) एतन्माहात्म्यसंयु ं गीताभ्यासं करोित यः। स तत्फलमवाप्नोित दलर्भां गितमाप्नुयात।।ु ् 22।। इस माहात्म्यसिहत ौीगीता का जो अभ्यास करता है वह उसका फल पाता है और दलर्भु गित को ूा होता है |(22) सूत उवाच माहात्म्यमेतद् गीताया मया ूो ं सनातनम।् गीतान्ते पठे ःतु यद ं तत्फलं लभेु त।।् 23।। सूत जी बोलेः गीता का यह सनातन माहात्म्य मैंने कहा | गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपयुर् फल ूा करता है |(23) इित ौीवाराहपुराणे ौीमद् गीतामाहात्म्यं संपूणर्म।् इित ौीवाराहपुराण में ौीमद् गीता माहात्म्य संपूणर्।। ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
  • 11. (अनुबम) ौीगीतामाहात्म्य का अनुसंधान शौनक उवाच गीताया ैव माहात्म्यं यथावत्सूत मे वद। पुराणमुिनना ूो ं व्यासेन ौुितनोिदतम।।् 1।। शौनक ऋिष बोलेः हे सूत जी ! अित पूवर्काल के मुिन ौी व्यासजी के ारा कहा हआु तथा ौुितयों में विणर्त ौीगीताजी का माहात्म्य मुझे भली ूकार किहए |(1) सूत उवाच पृ ं वै भवता य न्महद् गोप्यं पुरातनम।् न के न शक्यते व ुं गीतामाहात्म्यमु मम।।् 2।। सूत जी बोलेः आपने जो पुरातन और उ म गीतामाहात्म्य पूछा, वह अितशय गु है | अतः वह कहने के िलए कोई समथर् नहीं है |(2) कृ ंणो जानाित वै सम्यक क्विचत्कौन्तेय एव च।् व्यासो वा व्यासपुऽो वा याज्ञवल्क्योऽथ मैिथलः।।3।। गीता माहात्म्य को ौीकृ ंण ही भली ूकार जानते हैं, कु छ अजुर्न जानते हैं तथा व्यास, शुकदेव, याज्ञवल्क्य और जनक आिद थोड़ा-बहत जानते हैंु |(3) अन्ये ौवणतः ौृत्वा लोके संकीतर्यिन्त च। तःमाित्कं िच दाम्य व्यासःयाःयान्मया ौुतम।।् 4।। दसरे लोग कण पकणर् सुनकर लोक में वणर्न करते हैंू | अतः ौीव्यासजी के मुख से मैंने जो कु छ सुना है वह आज कहता हँू |(4) गीता सुगीता कतर्व्या िकमन्यैः शा संमहैः। या ःवयं प नाभःय मुखप ाि िनःसृता।।5।। जो अपने आप ौीिवंणु भगवान के मुखकमल से िनकली हई है गीता अच्छी तरहु कण्ठःथ करना चािहए | अन्य शा ों के संमह से क्या लाभ?(5)
  • 12. यःमा मर्मयी गीता सवर्ज्ञानूयोिजका। सवर्शा मयी गीता तःमाद् गीता िविशंयते।।6।। गीता धमर्मय, सवर्ज्ञान की ूयोजक तथा सवर् शा मय है, अतः गीता ौे है |(6) संसारसागरं घोरं ततुर्िमच्छित यो जनः। गीतानावं समारू पारं यातु सुखेन सः।।7।। जो मनुंय घोर संसार-सागर को तैरना चाहता है उसे गीतारूपी नौका पर चढ़कर सुखपूवर्क पार होना चािहए |(7) गीताशा िमदं पुण्यं यः पठेत ूयतः पुमान।् ् िवंणोः पदमवाप्नोित भयशोकािदविजर्तः।।8।। जो पुरुष इस पिवऽ गीताशा को सावधान होकर पढ़ता है वह भय, शोक आिद से रिहत होकर ौीिवंणुपद को ूा होता है |(8) गीताज्ञानं ौुतं नैव सदैवाभ्यासयोगतः। मोक्षिमच्छित मूढात्मा याित बालकहाःयताम।।् 9।। िजसने सदैव अभ्यासयोग से गीता का ज्ञान सुना नहीं है िफर भी जो मोक्ष की इच्छा करता है वह मूढात्मा, बालक की तरह हँसी का पाऽ होता है |(9) ये ौृण्विन्त पठन्त्येव गीताशा महिनर्शम।् न ते वै मानुषा ज्ञेया देवा एव न संशयः।।10।। जो रात-िदन गीताशा पढ़ते हैं अथवा इसका पाठ करते हैं या सुनते हैं उन्हें मनुंय नहीं अिपतु िनःसन्देह देव ही जानें |(10) मलिनम चनं पुंसां जलःनानं िदने िदने। सकृ द् गीताम्भिस ःनानं संसारमलनाशनम।।् 11।। हर रोज जल से िकया हआ ःनान मनुंयों का मैल दर करता है िकन्तु गीतारूपी जल मेंु ू एक बार िकया हआ ःनान भी संसाररूपी मैल का नाश करता हैु |(11)
  • 13. गीताशा ःय जानाित पठनं नैव पाठनम।् परःमान्न ौुतं ज्ञानं ौ ा न भावना।।12।। स एव मानुषे लोके पुरुषो िवड्वराहकः। यःमाद् गीतां न जानाित नाधमःतत्परो जनः।।13।। जो मनुंय ःवयं गीता शा का पठन-पाठन नहीं जानता है, िजसने अन्य लोगों से वह नहीं सुना है, ःवयं को उसका ज्ञान नहीं है, िजसको उस पर ौ ा नहीं है, भावना भी नहीं है, वह मनुंय लोक में भटकते हए शूकर जैसा ही हैु | उससे अिधक नीच दसरा कोई मनुंय नहीं हैू , क्योंिक वह गीता को नहीं जानता है | िधक तःय ज्ञानमाचारं ोतं चे ां तपो यशः।् गीताथर्पठनं नािःत नाधमःतत्परो जन।।14।। जो गीता के अथर् का पठन नहीं करता उसके ज्ञान को, आचार को, ोत को, चे ा को, तप को और यश को िधक्कार है | उससे अधम और कोई मनुंय नहीं है |(14) गीतागीतं न यज्ज्ञानं ति यासुरसंज्ञकम।् तन्मोघं धमर्रिहतं वेदवेदान्तगिहर्तम।।् 15।। जो ज्ञान गीता में नहीं गाया गया है वह वेद और वेदान्त में िनिन्दत होने के कारण उसे िनंफल, धमर्रिहत और आसुरी जानें | योऽधीते सततं गीतां िदवाराऽौ यथाथर्तः। ःवपन्गच्छन्वदंिःत ञ्छा तं मोक्षमाप्नुयात।।् 16।। जो मनुंय रात-िदन, सोते, चलते, बोलते और खड़े रहते हए गीता का यथाथर्तः सततु अध्ययन करता है वह सनातन मोक्ष को ूा होता है |(16) योिगःथाने िस पीठे िश ामे सत्सभासु च। यज्ञे च िवंणुभ ामे पठन्याित परां गितम।।् 17।। योिगयों के ःथान में, िस ों के ःथान में, ौे पुरुषों के आगे, संतसभा में, यज्ञःथान में और िवंणुभ ोंके आगे गीता का पाठ करने वाला मनुंय परम गित को ूा होता है |(17) गीतापाठं च ौवणं यः करोित िदने िदने।
  • 14. बतवो वािजमेधा ाः कृ ताःतेन सदिक्षणाः।।18।। जो गीता का पाठ और ौवण हर रोज करता है उसने दिक्षणा के साथ अ मेध आिद यज्ञ िकये ऐसा माना जाता है |(18) गीताऽधीता च येनािप भि भावेन चेतसा। तेन वेदा शा ािण पुराणािन च सवर्शः।।19।। िजसने भि भाव से एकाम, िच से गीता का अध्ययन िकया है उसने सवर् वेदों, शा ों तथा पुराणों का अभ्यास िकया है ऐसा माना जाता है |(19) यः ौृणोित च गीताथ कीतर्येच्च ःवयं पुमान।् ौावयेच्च पराथ वै स ूयाित परं पदम।।् 20।। जो मनुंय ःवयं गीता का अथर् सुनता है, गाता है और परोपकार हेतु सुनाता है वह परम पद को ूा होता है |(20) नोपसपर्िन्त तऽैव यऽ गीताचर्नं गृहे। तापऽयो वाः पीडा नैव व्यािधभयं तथा।।21।। िजस घर में गीता का पूजन होता है वहाँ (आध्याित्मक, आिधदैिवक और आिधभौितक) तीन ताप से उत्पन्न होने वाली पीड़ा तथा व्यािधयों का भय नहीं आता है | (21) न शापो नैव पापं च दगर्ितनं च िकं चन।ु देहेऽरयः षडेते वै न बाधन्ते कदाचन।।22।। उसको शाप या पाप नहीं लगता, जरा भी दगर्ित नहीं होती और छः शऽुु (काम, बोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर) देह में पीड़ा नहीं करते | (22) भगवत्परमेशाने भि रव्यिभचािरणी। जायते सततं तऽ यऽ गीतािभनन्दनम।।् 23।। जहाँ िनरन्तर गीता का अिभनंदन होता है वहाँ ौी भगवान परमे र में एकिन भि उत्पन्न होती है | (23)
  • 15. ःनातो वा यिद वाऽःनातः शुिचवार् यिद वाऽशुिचः। िवभूितं िव रूपं च संःमरन्सवर्दा शुिचः।।24।। ःनान िकया हो या न िकया हो, पिवऽ हो या अपिवऽ हो िफर भी जो परमात्म-िवभूित का और िव रूप का ःमरण करता है वह सदा पिवऽ है | (24) सवर्ऽ ूितभो ा च ूितमाही च सवर्शः। गीतापाठं ूकु वार्णो न िलप्येत कदाचन।।25।। सब जगह भोजन करने वाला और सवर् ूकार का दान लेने वाला भी अगर गीता पाठ करता हो तो कभी लेपायमान नहीं होता | (25) यःयान्तःकरणं िनत्यं गीतायां रमते सदा। सवार्िग्नकः सदाजापी िबयावान्स च पिण्डतः।।26।। िजसका िच सदा गीता में ही रमण करता है वह संपूणर् अिग्नहोऽी, सदा जप करनेवाला, िबयावान तथा पिण्डत है | (26) दशर्नीयः स धनवान्स योगी ज्ञानवानिप। स एव यािज्ञको ध्यानी सवर्वेदाथर्दशर्कः।।27।। वह दशर्न करने योग्य, धनवान, योगी, ज्ञानी, यािज्ञक, ध्यानी तथा सवर् वेद के अथर् को जानने वाला है | (27) गीतायाः पुःतकं यऽ िनत्यं पाठे ूवतर्ते। तऽ सवार्िण तीथार्िन ूयागादीिन भूतले।।28।। जहाँ गीता की पुःतक का िनत्य पाठ होता रहता है वहाँ पृथ्वी पर के ूयागािद सवर् तीथर् िनवास करते हैं | (28) िनवसिन्त सदा गेहे देहेदेशे सदैव िह। सव देवा ऋषयो योिगनः पन्नगा ये।।29।। उस घर में और देहरूपी देश में सभी देवों, ऋिषयों, योिगयों और सप का सदा िनवास होता है |(29)
  • 16. गीता गंगा च गायऽी सीता सत्या सरःवती। ॄ िव ा ॄ वल्ली िऽसंध्या मु गेिहनी।।30।। अधर्माऽा िचदानन्दा भवघ्नी भयनािशनी। वेदऽयी पराऽनन्ता त वाथर्ज्ञानमंजरी।।31।। इत्येतािन जपेिन्नत्यं नरो िन लमानसः। ज्ञानिसि ं लभेच्छीयं तथान्ते परमं पदम।।् 32।। गीता, गंगा, गायऽी, सीता, सत्या, सरःवती, ॄ िव ा, ॄ वल्ली, िऽसंध्या, मु गेिहनी, अधर्माऽा, िचदानन्दा, भवघ्नी, भयनािशनी, वेदऽयी, परा, अनन्ता और त वाथर्ज्ञानमंजरी (त वरूपी अथर् के ज्ञान का भंडार) इस ूकार (गीता के ) अठारह नामों का िःथर मन से जो मनुंय िनत्य जप करता है वह शीय ज्ञानिसि और अंत में परम पद को ूा होता है | (30,31,32) य त्कमर् च सवर्ऽ गीतापाठं करोित वै। त त्कमर् च िनद षं कृ त्वा पूणर्मवाप्नुयात।।् 33।। मनुंय जो-जो कमर् करे उसमें अगर गीतापाठ चालू रखता है तो वह सब कमर् िनद षता से संपूणर् करके उसका फल ूा करता है | (33) िपतृनु ँय यः ौा े गीतापाठं करोित वै। संतु ा िपतरःतःय िनरया ािन्त सदगितम।।् 34।। जो मनुंय ौा में िपतरों को लआय करके गीता का पाठ करता है उसके िपतृ सन्तु होते हैं और नकर् से सदगित पाते हैं | (34) गीतापाठेन संतु ाः िपतरः ौा तिपर्ताः। िपतृलोकं ूयान्त्येव पुऽाशीवार्दतत्पराः।।35।। गीतापाठ से ूसन्न बने हए तथा ौा से तृ िकये हए िपतृगण पुऽ को आशीवार्द देनेु ु के िलए तत्पर होकर िपतृलोक में जाते हैं | (35) िलिखत्वा धारयेत्कण्ठे बाहदण्डे च मःतके ।ु नँयन्त्युपिवाः सव िवघ्नरूपा दारूणाः।।36।।
  • 17. जो मनुंय गीता को िलखकर गले में, हाथ में या मःतक पर धारण करता है उसके सवर् िवघ्नरूप दारूण उपिवों का नाश होता है | (36) देहं मानुषमािौत्य चातुवर्ण्य तु भारते। न ौृणोित पठत्येव ताममृतःवरूिपणीम।।् 37।। हःता या वाऽमृतं ूा ं क ात्आवेडं सम ुते पीत्वा गीतामृतं लोके लब्ध्वा मोक्षं सुखी भवेत।।् 38।। भरतखण्ड में चार वण में मनुंय देह ूा करके भी जो अमृतःवरूप गीता नहीं पढ़ता है या नहीं सुनता है वह हाथ में आया हआ अमृत छोड़कर क से िवष खाता हैु | िकन्तु जो मनुंय गीता सुनता है, पढ़ता तो वह इस लोक में गीतारूपी अमृत का पान करके मोक्ष ूा कर सुखी होता है | (37, 38) जनैः संसारदःखातग ताज्ञानं च यैः ौुतम।ु ् संूा ममृतं तै गताःते सदनं हरेः।।39।। संसार के दःखों से पीिड़त िजन मनुंयों ने गीता का ज्ञान सुना हैु उन्होंने अमृत ूा िकया है और वे ौी हिर के धाम को ूा हो चुके हैं | (39) गीतामािौत्य बहवो भूभुजो जनकादयः। िनधूर्तकल्मषा लोके गताःते परमं पदम।।् 40।। इस लोक में जनकािद की तरह कई राजा गीता का आौय लेकर पापरिहत होकर परम पद को ूा हए हैंु | (40) गीतासु न िवशेषोऽिःत जनेषूच्चावचेषु च। ज्ञानेंवेव सममेषु समा ॄ ःवरूिपणी।।41।। गीता में उच्च और नीच मनुंय िवषयक भेद ही नहीं हैं, क्योंिक गीता ॄ ःवरूप है अतः उसका ज्ञान सबके िलए समान है | (41) यः ौुत्वा नैव गीताथ मोदते परमादरात।् नैवाप्नोित फलं लोके ूमादाच्च वृथा ौमम।।् 42।।
  • 18. गीता के अथर् को परम आदर से सुनकर जो आनन्दवान नहीं होता वह मनुंय ूमाद के कारण इस लोक में फल नहीं ूा करता है िकन्तु व्यथर् ौम ही ूा करता है | (42) गीतायाः पठनं कृ त्वा माहात्म्यं नैव यः पठेत।् वृथा पाठफलं तःय ौम एव ही के वलम।।् 43।। गीता का पाठ करे जो माहात्म्य का पाठ नहीं करता है उसके पाठ का फल व्यथर् होता है और पाठ के वल ौमरूप ही रह जाता है | एतन्माहात्म्यसंयु ं गीतापाठं करोित यः। ौ या यः ौृणोत्येव दलर्भां गितमाप्नुयात।।ु ् 44।। इस माहात्म्य के साथ जो गीता पाठ करता है तथा जो ौ ा से सुनता है वह दलर्भ गितु को ूा होता है |(44) माहात्म्यमेतद् गीताया मया ूो ं सनातनम।् गीतान्ते च पठे ःतु यद ं तत्फलं लभेत।।ु ् 45।। गीता का सनातन माहात्म्य मैंने कहा है | गीता पाठ के अन्त में जो इसका पाठ करता है वह उपयुर् फल को ूा होता है | (45) इित ौीवाराहपुराणो तं ौीमदगीतामाहात्म्यानुसंधानं समा मृ ्| इित ौीवाराहपुराणान्तगर्त ौीमदगीतामाहात्म्यानुंसंधान समा | ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ (अनुबम) गीता में ौीकृ ंण भगवान के नामों के अथर् अनन्तरूपः िजनके अनन्त रूप हैं वह | अच्युतः िजनका कभी क्षय नहीं होता, कभी अधोगित नहीं होती वह | अिरसूदनः ूय के िबना ही शऽु का नाश करने वाले | कृ ंणः 'कृ ष ्' स ावाचक है | 'ण' आनन्दवाचक है | इन दोनों के एकत्व का सूचक परॄ भी कृ ंण कहलाता है | के शवः क माने ॄ को और ईश Ð िशव को वश में रखने वाले |
  • 19. के िशिनषूदनः घोड़े का आकार वाले के िश नामक दैत्य का नाश करने वाले | कमलपऽाक्षः कमल के प े जैसी सुन्दर िवशाल आँखों वाले | गोिवन्दः गो माने वेदान्त वाक्यों के ारा जो जाने जा सकते हैं | जगत्पितः जगत के पित | जगिन्नवासः िजनमें जगत का िनवास है अथवा जो जगत में सवर्ऽ बसे हए हैु | जनादर्नः द जनों कोु , भ ों के शऽुओं को पीिड़त करने वाले | देवदेवः देवताओं के पूज्य | देववरः देवताओं में ौे | पुरुषो मः क्षर और अक्षर दोनों पुरुषों से उ म अथवा शरीररूपी पुरों में रहने वाले पुरुषों यानी जीवों से जो अित उ म, परे और िवलक्षण हैं वह | भगवानः ऐ यर्, धमर्, यश, लआमी, वैराग्य और मोक्ष... ये छः पदाथर् देने वाले अथवा सवर् भूतों की उत्पि , ूलय, जन्म, मरण तथा िव ा और अिव ा को जानने वाले | भूतभावनः सवर्भूतों को उत्पन्न करने वाले | भूतेशः भूतों के ई र, पित | मधुसूदनः मधु नामक दैत्य को मारने वाले | महाबाहःू िनमह और अनुमह करने में िजनके हाथ समथर् हैं वह | माधवः माया के , लआमी के पित | यादवः यदकु ल में जन्मे हएु ु | योगिव मः योग जानने वालों में ौे | वासुदेवः वासुदेव के पुऽ | वांणयः वृिंण के ईश, ःवामी | हिरः संसाररूपी दःख हरने वालेु | (अनुबम) अजुर्न के नामों के अथर् अनघः पापरिहत, िनंपाप | किपध्वजः िजसके ध्वज पर किप माने हनुमान जी हैं वह | कु रुौे ः कु रुकु ल में उत्पन्न होने वालों में ौे | कु रुनन्दनः कु रुवंश के राजा के पुऽ | कु रुूवीरः कु रुकु ल में जन्मे हए पुरुषों में िवशेष तेजःवीु |
  • 20. कौन्तेयः कुं ती का पुऽ | गुडाके शः िनिा को जीतने वाला, िनिा का ःवामी अथवा गुडाक माने िशव िजसके ःवामी हैं वह | धनंजयः िदिग्वजय में सवर् राजाओं को जीतने वाला | धनुधर्रः धनुष को धारण करने वाला | परंतपः परम तपःवी अथवा शऽुओं को बहत तपाने वालाु | पाथर्ः पृथा माने कुं ती का पुऽ | पुरुषव्यायः पुरुषों में व्याय जैसा | पुरुषषर्भः पुरुषों में ऋषभ माने ौे | पाण्डवः पाण्डु का पुऽ | भरतौे ः भरत के वंशजों में ौे | भरतस मः भरतवंिशयों में ौे | भरतषर्भः भरतवंिशयों में ौे | भारतः भा माने ॄ िव ा में अित ूेमवाला अथवा भरत का वंशज | महाबाहःु बड़े हाथों वाला | सव्यसािचन ् बायें हाथ से भी सरसन्धान करने वाला | (अनुबम) ौीमद् भगवदगीता पहले अध्याय का माहात्म्य ौी पावर्ती जी ने कहाः भगवन ् ! आप सब त वों के ज्ञाता हैं | आपकी कृ पा से मुझे ौीिवंणु-सम्बन्धी नाना ूकार के धमर् सुनने को िमले, जो समःत लोक का उ ार करने वाले हैं | देवेश ! अब मैं गीता का माहात्म्य सुनना चाहती हँू, िजसका ौवण करने से ौीहिर की भि बढ़ती है | ौी महादेवजी बोलेः िजनका ौीिवमह अलसी के फू ल की भाँित ँयाम वणर् का है, पिक्षराज गरूड़ ही िजनके वाहन हैं, जो अपनी मिहमा से कभी च्युत नहीं होते तथा शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं, उन भगवान महािवंणु की हम उपासना करते हैं | एक समय की बात है | मुर दैत्य के नाशक भगवान िवंणु शेषनाग के रमणीय आसन पर सुखपूवर्क िवराजमान थे | उस समय समःत लोकों को आनन्द देने वाली भगवती लआमी ने आदरपूवर्क ू िकया |
  • 21. ौीलआमीजी ने पूछाः भगवन ! आप सम्पूणर् जगत का पालन करते हए भी अपने ऐ यर्ु के ूित उदासीन से होकर जो इस क्षीरसागर में नींद ले रहे हैं, इसका क्या कारण है? ौीभगवान बोलेः सुमुिख ! मैं नींद नहीं लेता हँू, अिपतु त व का अनुसरण करने वाली अन्तदृर्ि के ारा अपने ही माहे र तेज का साक्षात्कार कर रहा हँू | यह वही तेज है, िजसका योगी पुरुष कु शाम बुि के ारा अपने अन्तःकरण में दशर्न करते हैं तथा िजसे मीमांसक िव ान वेदों का सार-त व िनि चत करते हैं | वह माहे र तेज एक, अजर, ूकाशःवरूप, आत्मरूप, रोग- शोक से रिहत, अखण्ड आनन्द का पुंज, िनंपन्द तथा ैतरिहत है | इस जगत का जीवन उसी के अधीन है | मैं उसी का अनुभव करता हँू | देवे िर ! यही कारण है िक मैं तुम्हें नींद लेता सा ूतीत हो रहा हँू | ौीलआमीजी ने कहाः हृिषके श ! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं | आपके अितिर भी कोई ध्यान करने योग्य त व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है | इस चराचर जगत की सृि और संहार करने वाले ःवयं आप ही हैं | आप सवर्समथर् हैं | इस ूकार की िःथित में होकर भी यिद आप उस परम त व से िभन्न हैं तो मुझे उसका बोध कराइये | ौी भगवान बोलेः िूये ! आत्मा का ःवरूप ैत और अ ैत से पृथक, भाव और अभाव से मु तथा आिद और अन्त से रिहत है | शु ज्ञान के ूकाश से उपलब्ध होने वाला तथा परमानन्द ःवरूप होने के कारण एकमाऽ सुन्दर है | वही मेरा ई रीय रूप है | आत्मा का एकत्व ही सबके ारा जानने योग्य है | गीताशा में इसी का ूितपादन हआ हैु | अिमत तेजःवी भगवान िवंणु के ये वचन सुनकर लआमी देवी ने शंका उपिःथत करे हए कहाः भगवनु ! यिद आपका ःवरूप ःवयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहँच के बाहर है तो गीता कै से उसका बोधु कराती है? मेरे इस संदेह का िनवारण कीिजए | ौी भगवान बोलेः सुन्दरी ! सुनो, मैं गीता में अपनी िःथित का वणर्न करता हँू | बमश पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरणकमल जानो | इस ूकार यह अठारह अध्यायों की वाङमयी ई रीय मूितर् ही समझनी चािहए | यह ज्ञानमाऽ से ही महान पातकों का नाश करने वाली है | जो उ म बुि वाला पुरुष गीता के एक या आधे अध्याय का अथवा एक, आधे या चौथाई ोक का भी ूितिदन अभ्यास करता है, वह सुशमार् के समान मु हो जाता है | ौी लआमीजी ने पूछाः देव ! सुशमार् कौन था? िकस जाित का था और िकस कारण से उसकी मुि हईु ? ौीभगवान बोलेः िूय ! सुशमार् बड़ी खोटी बुि का मनुंय था | पािपयों का तो वह िशरोमिण ही था | उसका जन्म वैिदक ज्ञान से शून्य और बू रतापूणर् कमर् करने वाले ॄा णों के कु ल में हआ थाु | वह न ध्यान करता था, न जप, न होम करता था न अितिथयों का सत्कार | वह लम्पट होने के कारण सदा िवषयों के सेवन में ही लगा रहता था | हल जोतता और प े
  • 22. बेचकर जीिवका चलाता था | उसे मिदरा पीने का व्यसन था तथा वह मांस भी खाया करता था | इस ूकार उसने अपने जीवन का दीघर्काल व्यतीत कर िदया | एकिदन मूढ़बुि सुशमार् प े लाने के िलए िकसी ऋिष की वािटका में घूम रहा था | इसी बीच मे कालरूपधारी काले साँप ने उसे डँस िलया | सुशमार् की मृत्यु हो गयी | तदनन्तर वह अनेक नरकों में जा वहाँ की यातनाएँ भोगकर मृत्युलोक में लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हआु | उस समय िकसी पंगु ने अपने जीवन को आराम से व्यतीत करने के िलए उसे खरीद िलया | बैल ने अपनी पीठ पर पंगु का भार ढोते हए बड़े क से सातु -आठ वषर् िबताए | एक िदन पंगु ने िकसी ऊँ चे ःथान पर बहतु देर तक बड़ी तेजी के साथ उस बैल को घुमाया | इससे वह थककर बड़े वेग से पृथ्वी पर िगरा और मूिच्छर्त हो गया | उस समय वहाँ कु तूहलवश आकृ हो बहत से लोग एकिऽु त हो गये | उस जनसमुदाय में से िकसी पुण्यात्मा व्यि ने उस बैल का कल्याण करने के िलए उसे अपना पुण्य दान िकया | तत्प ात कु छ दसरे लोगों ने भी अपने् ू -अपने पुण्यों को याद करके उन्हें उसके िलए दान िकया | उस भीड़ में एक वेँया भी खड़ी थी | उसे अपने पुण्य का पता नहीं था तो भी उसने लोगों की देखा-देखी उस बैल के िलए कु छ त्याग िकया | तदनन्तर यमराज के दत उस मरे हए ूाणी को पहले यमपुरी में ले गयेू ु | वहाँ यह िवचारकर िक यह वेँया के िदये हए पुण्य से पुण्यवान हो गया हैु , उसे छोड़ िदया गया िफर वह भूलोक में आकर उ म कु ल और शील वाले ॄा णों के घर में उत्पन्न हआु | उस समय भी उसे अपने पूवर्जन्म की बातों का ःमरण बना रहा | बहत िदनों के बाद अपने अज्ञान को दर करनेु ू वाले कल्याण-त व का िजज्ञासु होकर वह उस वेँया के पास गया और उसके दान की बात बतलाते हए उसने पूछाःु 'तुमने कौन सा पुण्य दान िकया था?' वेँया ने उ र िदयाः 'वह िपंजरे में बैठा हआ तोता ूितिदन कु छ पढ़ता हैु | उससे मेरा अन्तःकरण पिवऽ हो गया है | उसी का पुण्य मैंने तुम्हारे िलए दान िकया था |' इसके बाद उन दोनों ने तोते से पूछा | तब उस तोते ने अपने पूवर्जन्म का ःमरण करके ूाचीन इितहास कहना आरम्भ िकया | शुक बोलाः पूवर्जन्म में मैं िव ान होकर भी िव ता के अिभमान से मोिहत रहता था | मेरा राग- ेष इतना बढ़ गया था िक मैं गुणवान िव ानों के ूित भी ईंयार् भाव रखने लगा | िफर समयानुसार मेरी मृत्यु हो गयी और मैं अनेकों घृिणत लोकों में भटकता िफरा | उसके बाद इस लोक में आया | सदगुरु की अत्यन्त िनन्दा करने के कारण तोते के कु ल में मेरा जन्म हआु | पापी होने के कारण छोटी अवःथा में ही मेरा माता-िपता से िवयोग हो गया | एक िदन मैं मींम ऋतु में तपे मागर् पर पड़ा था | वहाँ से कु छ ौे मुिन मुझे उठा लाये और महात्माओं के आौय में आौम के भीतर एक िपंजरे में उन्होंने मुझे डाल िदया | वहीं मुझे पढ़ाया गया | ऋिषयों के बालक बड़े आदर के साथ गीता के ूथम अध्याय की आवृि करते थे | उन्हीं से सुनकर मैं भी बारंबार पाठ करने लगा | इसी बीच में एक चोरी करने वाले बहेिलये ने मुझे वहाँ से चुरा िलया | तत्प ात इस देवी ने मुझे खरीद िलया् | पूवर्काल में मैंने इस ूथम अध्याय का अभ्यास
  • 23. िकया था, िजससे मैंने अपने पापों को दर िकया हैू | िफर उसी से इस वेँया का भी अन्तःकरण शु हआ है और उसी केु पुण्य से ये ि जौे सुशमार् भी पापमु हए हैंु | इस ूकार परःपर वातार्लाप और गीता के ूथम अध्याय के माहात्म्य की ूशंसा करके वे तीनों िनरन्तर अपने-अपने घर पर गीता का अभ्यास करने लगे, िफर ज्ञान ूा करके वे मु हो गये | इसिलए जो गीता के ूथम अध्याय को पढ़ता, सुनता तथा अभ्यास करता है, उसे इस भवसागर को पार करने में कोई किठनाई नहीं होती | (अनुबम) पहला अध्यायःअजुर्निवषादयोग भगवान ौीकृ ंण ने अजुर्न को िनिम बना कर समःत िव को गीता के रूप में जो महान उपदेश् िदया है, यह अध्याय उसकी ूःतावना रूप है | उसमें दोनों पक्ष के ूमुख यो ाओं के नाम िगनाने के बाद मुख्यरूप से अजुर्न को कु टंबनाश की आशंका से उत्पन्न हए मोहजिनतु ु िवषाद का वणर्न है | ।। अथ ूथमोऽध्यायः ।। धृतरा उवाच धमर्क्षेऽे कु रुक्षेऽे समवेता युयुत्सवः। मामकाः पाण्डवा ैव िकमकु वर्त संजय।।1।। धृतरा बोलेः हे संजय ! धमर्भूिम कु रुक्षेऽ में एकिऽत, यु की इच्छावाले मेरे पाण्डु के पुऽों ने क्या िकया? (1) संजय उवाच दृ वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दय धनःतदा।ु आचायर्मुपसंङगम्य राजा वचनमॄवीत।।् 2।। संजय बोलेः उस समय राजा दय धन ने व्यूहरचनायु पाण्डवों की सेना को देखकर औरु िोणाचायर् के पास जाकर यह वचन कहाः (2) पँयैतां पाण्डुपुऽाणामाचायर् महतीं चमूम।् व्यूढां िपदपुऽेण तव िशंयेण धीमता।।ु 3।।
  • 24. हे आचायर् ! आपके बुि मान िशंय िपदपुऽ धृ ुम्न के ारा व्यूहाकार खड़ी की हईु ु पाण्डुपुऽों की इस बड़ी भारी सेना को देिखये |(3) अऽ शूरा महेंवासा भीमाजुर्नसमा युिध। युयुधानो िवराट िपद महारथः।।ु 4।। धृ के तु ेिकतानः कािशराज वीयर्वान।् पुरुिजत्कु िन्तभोज शैब्य नरपुंङगवः।।5।। युधामन्यु िवबान्त उ मौजा वीयर्वान।् सौभिो िौपदेया सवर् एव महारथाः।।6।। इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा यु में भीम और अजुर्न के समान शूरवीर सात्यिक और िवराट तथा महारथी राजा िपदु , धृ के तु और चेिकतान तथा बलवान काशीराज, पुरुिजत, कु िन्तभोज और मनुंयों में ौे शैब्य, पराबमी, युधामन्यु तथा बलवान उ मौजा, सुभिापुऽ अिभमन्यु और िौपदी के पाँचों पुऽ ये सभी महारथी हैं | (4,5,6) अःमाकं तु िविश ा ये तािन्नबोध ि जो म। नायका मम सैन्यःय संञ्ज्ञाथ तान्ॄवीिम ते।।7।। हे ॄा णौे ! अपने पक्ष में भी जो ूधान हैं, उनको आप समझ लीिजए | आपकी जानकारी के िलए मेरी सेना के जो-जो सेनापित हैं, उनको बतलाता हँू | भवान्भींम कणर् कृ प सिमितंञ्जयः। अ त्थामा िवकणर् सौमदि ःतथैव च।।8।। आप, िोणाचायर् और िपतामह भींम तथा कणर् और संमामिवजयी कृ पाचायर् तथा वैसे ही अ त्थामा, िवकणर् और सोमद का पुऽ भूिरौवा | (8) अन्ये च बहवः शूरा मदथ त्य जीिवताः। नानाश ूहरणाः सव यु िवशारदाः।।9।। और भी मेरे िलए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहत से शूरवीर अनेक ूकार केु अ ों-श ों से सुसिज्जत और सब के सब यु में चतुर हैं | (9) अपयार् ं तदःमाकं बलं भींमािभरिक्षतम।्
  • 25. पयार् ं ित्वदमेतेषां बलं भीमािभरिक्षतम।।् 10।। भींम िपतामह ारा रिक्षत हमारी वह सेना सब ूकार से अजेय है और भीम ारा रिक्षत इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है | (10) अयनेषु च सवषु यथाभागमविःथताः। भींममेवािभरक्षन्तु भवन्तः सवर् एव िह।।11।। इसिलए सब मोच पर अपनी-अपनी जगह िःथत रहते हए आप लोग सभी िनःसंदेहु भींम िपतामह की ही सब ओर से रक्षा करें | (11) संजय उवाच तःय संञ्जनयन्हष कु रुवृ ः िपतामहः। िसंहनादं िवन ोच्चैः शंख्ङं दध्मौ ूतापवान।।् 12।। कौरवों में वृ बड़े ूतापी िपतामह भींम ने उस दय धन के हृदय में हषर् उत्पन्न करतेु हए उच्च ःवर से िसंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजायाु | (12) ततः शंख्ङा भेयर् पणवानकगोमुखाः। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दःतुमुलोऽभवत।।् 13।। इसके प ात शंख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरिसंघे आिद बाजे एक साथ ही बज उठे | उनका वह शब्द बड़ा भयंकर हआु | (13) ततः ेतैहर्यैयुर् े महित ःयन्दने िःथतौ। माधवः पाण्डव ैव िदव्यौ शंख्ङौ ूदध्मतुः।।14।। इसके अनन्तर सफे द घोड़ों से यु उ म रथ में बैठे हए ौीकृ ंण महाराज और अजुर्न नेु भी अलौिकक शंख बजाये |(14) पाञ्चजन्यं हृिषके शो देवद ं धनञ्जयः। पौण्सं दध्मौ महाशंख्ङं भीमकमार् वृकोदरः।।15।। ौीकृ ंण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक, अजुर्न ने देवद नामक और भयानक कमर्वाले भीमसेन ने पौण्स नामक महाशंख बजाया | (15)
  • 26. अनन्तिवजयं राजा कु न्तीपुऽो युिधि रः। नकु लः सहदेव सुघोषमिणपुंपकौ।।16।। कु न्तीपुऽ राजा युिधि र ने अनन्तिवजय नामक और नकु ल तथा सहदेव ने सुघोष और मिणपुंपकनामक शंख बजाये | (16) काँय परमेंवासः िशखण्डी च महारथः। धृ ुम्नो िवराट साित्यक ापरािजतः।।17।। िपदो िौपदेया सवर्शः पृिथवीपते।ु सौभि महाबाहः शंु ख्ङान्दध्मुः पृथक् पृथक्।।18।। ौे धनुष वाले कािशराज और महारथी िशखण्डी और धृ ुम्न तथा राजा िवराट और अजेय सात्यिक, राजा िपद और िौपदी के पाँचों पुऽ और बड़ी भुजावाले सुभिापुऽ अिभमन्युु -इन सभी ने, हे राजन ! सब ओर से अलग-अलग शंख बजाये | स घोषो धातर्रा ाणां हृदयािन व्यदारयत।् नभ पृिथवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन।।् 19।। और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हए धातर्रा ों के अथार्तु ् आपके पक्ष वालों के हृदय िवदीणर् कर िदये | (19) अथ व्यविःथतान्दृंट्वा धातर्रा ान किपध्वजः।् ूवृ े श सम्पाते धनुरु म्य पाण्डवः।।20।। हृिषके शं तदा वाक्यिमदमाह महीपते। अजुर्न उवाच सेनयोरुभयोमर्ध्ये रथं ःथापय मेऽच्युत।।21।। हे राजन ! इसके बाद किपध्वज अजुर्न ने मोचार् बाँधकर डटे हए धृतरा सम्बिन्धयों को देखकर, उस श चलाने की तैयारी के समय धनुष उठाकर हृिषके श ौीकृ ंण महाराज से यह वचन कहाः हे अच्युत ! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीिजए | यावदेतािन्नरीक्षेऽहं योद्ीुकामानविःथतान।् कै मर्या सह यो व्यमिःमन रणसमु मे।।् 22।।
  • 27. और जब तक िक मैं यु क्षेऽ में डटे हए यु के अिभलाषी इन िवपक्षी यो ाओं को भलीु ूकार देख न लूँ िक इस यु रुप व्यापार में मुझे िकन-िकन के साथ यु करना योग्य है, तब तक उसे खड़ा रिखये | (22) योत्ःयमानानवेक्षेऽहं य एतेऽऽ समागताः। धातर्रा ःय दबुर् ेयुर् े िूयिचकीषर्वः।।ु 23।। दबुर्ि दय धन का यु में िहत चाहने वाले जोु ु -जो ये राजा लोग इस सेना में आये हैं, इन यु करने वालों को मैं देखूँगा | (23) संजयउवाच एवमु ो हृिषके शो गुडाके शेन भारत। सेनयोरुभयोमर्ध्ये ःथापियत्वा रथो मम।।् 24।। भींमिोणूमुखतः सवषां च महीिक्षताम।् उवाच पाथर् पँयैतान समवेतान कु रुिनित।।् ् 25।। संजय बोलेः हे धृतरा ! अजुर्न ारा इस ूकार कहे हए महाराज ौीकृ ंणचन्ि ने दोनोंु सेनाओं के बीच में भींम और िोणाचायर् के सामने तथा सम्पूणर् राजाओं के सामने उ म रथ को खड़ा करके इस ूकार कहा िक हे पाथर् ! यु के िलए जुटे हए इन कौरवों को देखु | (24,25) तऽापँयित्ःथतान पाथर्ः िपतृनथ िपतामहान।् ् आचायार्न्मातुलान्ॅातृन्पुऽान्पौऽान्सखींःतथा।।26।। शुरान सुहृद ैव सेनयोरूभयोरिप।् तान्समीआय स कौन्तेय़ः सवार्न्बन्धूनविःथतान।।् 27।। कृ पया परयािव ो िवषीदिन्नमॄवीत।् इसके बाद पृथापुऽ अजुर्न ने उन दोनों सेनाओं में िःथत ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को, पुऽों को, पौऽों को तथा िमऽों को, ससुरों को और सुहृदों को भी देखा | उन उपिःथत सम्पूणर् बन्धुओं को देखकर वे कु न्तीपुऽ अजुर्न अत्यन्त करूणा से यु होकर शोक करते हए यह वचु न बोले |(26,27) अजुर्न उवाच दृंट्वेमं ःवजनं कृ ंण युयुत्सुं समुपिःथतम।।् 28। सीदिन्त मम गाऽािण मुखं च पिरशुंयित।
  • 28. वेपथु शरीरे मे रोमहषर् जायते।।29।। अजुर्न बोलेः हे कृ ंण ! यु क्षेऽ में डटे हए यु के अिभलाषी इस ःवजनु -समुदाय को देखकर मेरे अंग िशिथल हए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प औरु रोमांच हो रहा है | गाण्डीवं ंसते हःता वक्चैव पिरद ते। न च शक्नोम्यवःथातुं ॅमतीव च मे मनः।।30।। हाथ से गाण्डीव धनुष िगर रहा है और त्वचा भी बहत जल रही है तथा मेरा मन ॅु िमत हो रहा है, इसिलए मैं खड़ा रहने को भी समथर् नहीं हँू |(30) िनिम ािन च पँयािम िवपरीतािन के शव। न च ौेयोऽनुपँयािम हत्वा ःवजनमाहवे।।31।। हे के शव ! मैं लआणों को भी िवपरीत देख रहा हँ तथा यु में ःवजनू -समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता | (31) न कांक्षे िवजयं कृ ंण न च राज्यं सुखािन च। िकं नो राज्येन गोिवन्द िकं भोगैज िवतेन वा।।32।। हे कृ ंण ! मैं न तो िवजय चाहता हँ और न राज्य तथा सुखों को हीू | हे गोिवन्द ! हमें ऐसे राज्य से क्या ूयोजन है अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है? (32) येषामथ कांिक्षतं नो राज्यं भोगाः सुखािन च। त इमेऽविःथता यु े ूाणांःत्य वा धनािन च।।33।। हमें िजनके िलए राज्य, भोग और सुखािद अभी हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर यु में खड़े हैं | (33) आचायार्ः िपतरः पुऽाःतथैव च िपतामहाः। मातुलाः शुराः पौऽाः ँयालाः सम्बिन्धनःतथा।।34।। गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और उसी ूकार दादे, मामे, ससुर, पौऽ, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं | (34) एतान्न हन्तुिमच्छािम घ्नतोऽिप मधुसूदन।
  • 29. अिप ऽैलोक्यराज्यःय हेतोः िकं नु महीकृ ते।।35।। हे मधुसूदन ! मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के िलए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, िफर पृथ्वी के िलए तो कहना ही क्या? (35) िनहत्य धातर्रा ान्नः का ूीितः ःयाज्जनादर्न। पापमेवाौयेदःमान हत्वैतानातताियनः।।् 36।। हे जनादर्न ! धृतरा के पुऽों को मारकर हमें क्या ूसन्नता होगी? इन आततािययों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा | (36) तःमान्नाहार् वयं हन्तुं धातर्रा ान ःवबान्धवान।् ् ःवजनं िह कथं हत्वा सुिखनः ःयाम माधव।।37।। अतएव हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतरा के पुऽों को मारने के िलए हम योग्य नहीं हैं, क्योंिक अपने ही कु टम्ब को मारकर हम कै से सुखी होंगेु ? (37) य प्येते न पँयिन्त लोभोपहतचेतसः। कु लक्षयकृ तं दोषं िमऽिोहे च पातकम।।् 38।। कथं न ज्ञेयमःमािभः पापादःमािन्नवितर्तुम।् कु लक्षयकृ तं दोषं ूपँयि जर्नादर्न।।39।। य िप लोभ से ॅ िच हए ये लोग कु ल के नाश से उत्पन्न दोष को और िमऽों सेु िवरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे जनादर्न ! कु ल के नाश से उत्पन्न दोष को जाननेवाले हम लोगों को इस पाप से हटने के िलए क्यों नहीं िवचार करना चािहए? कु लक्षये ूणँयिन्त कु लधमार्ः सनातनाः। धम न े कु लं कृ त्ःनमधम ऽिभभवत्युत।।40।। कु ल के नाश से सनातन कु लधमर् न हो जाते हैं, धमर् के नाश हो जाने पर सम्पूणर् कु ल में पाप भी बहत फै ल जाता हैु |(40) अधमार्िभभवात्कृ ंण ूदंयिन्त कु लि यः।ु ीषु द ासु वांणय जायु ते वणर्संकरः।।41।।
  • 30. हे कृ ंण ! पाप के अिधक बढ़ जाने से कु ल की ि याँ अत्यन्त दिषत हो जाती हैं और हेू वांणय ! ि यों के दिषत हो जाने पर वणर्संकर उत्पन्न होता हैू |(41) संकरो नरकायैव कु लघ्नानां कु लःय च। पतिन्त िपतरो ेषां लु िपण्डोदकिबयाः।।42।। वणर्संकर कु लघाितयों को और कु ल को नरक में ले जाने के िलए ही होता है | लु हईु िपण्ड और जल की िबयावाले अथार्त ौा और तपर्ण से वंिचत इनके िपतर लोग भी अधोगित् को ूा होते हैं |(42) दोषैरेतैः कु लघ्नानां वणर्संकरकारकै ः। उत्सा न्ते जाितधमार्ः कु लधमार् शा ताः।।43।। इन वणर्संकरकारक दोषों से कु लघाितयों के सनातन कु ल धमर् और जाित धमर् न हो जाते हैं | (43) उत्सन्कु लधमार्णां मनुंयाणां जनादर्न। नरके ऽिनयतं वासो भवतीत्यनुशुौुम।।44।। हे जनादर्न ! िजनका कु लधमर् न हो गया है, ऐसे मनुंयों का अिनि त काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं | अहो बत महत्पापं कतु व्यविसता वयम।् यिाज्यसुखलोभेन हन्तुं ःवजनमु ताः।।45।। हा ! शोक ! हम लोग बुि मान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से ःवजनों को मारने के िलए उ त हो गये हैं | (45) यिद मामूतीकारमश ं श पाणयः। धातर्रा ा रणे हन्युःतन्मे क्षेमतरं भवेत।।् 46।। यिद मुझ श रिहत और सामना न करने वाले को श हाथ में िलए हए धृतरा के पुऽु रण में मार डालें तो वह मारना भी मेरे िलए अिधक कल्याणकारक होगा | (46) संजय उवाच