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योगिक दृगि से मानव शरीर में नाडी, चक्र तथा क
ु ण्डगिनी शक्ति योि साधना का
आधार है।
नाड़ी
• मानव शरीर में प्राण संचालन का तंत्र जाल फ
ै ला है। इस मानव शरीर में श्वास प्रश्वास
द्वारा शरीर में प्राण ऊजाा क
े क्षेत्र आवेशशत होते है। ऊजाा उत्पादन में हमारी श्वास
प्रश्वास की प्रशिया अहम भूशमका शनभाती हैं।
• श्वास प्रश्वास द्वारा उत्पाशदत ऊजाा को ऊजाा संग्राहकों, शजन्हें योग की भाषा में चि
कहा जाता है, में शदशान्तररत कर शदया जाता है।
• नाशियां संवेदनाओं एवं प्राण को प्रवाशहत करती है। स्थूल शरीर में इन्हें नवा क
े रूप
में, जाना जा सकता है जो रक्त प्रवाह में सहायक होती है। परन्तु योग में जो नाशियााँ
वशणात है उन्हें नग्न ओंखों से नहीं देखा जा सकता है। क्ोंशक वे अशत सूक्ष्म होती है
और उनमें सूक्ष्म प्राण शक्तक्त ही प्रवाशहत होती है।
• नाडी शब्द का अथथ-
• नाड़ी शब्द की व्युत्पक्ति संस्क
ृ त क
े नाि् शब्द से हुई है। शजसका अथा है
प्रवाह। सूक्ष्म ध्वशन कम्पनों को भी नाद कहा जाता है। इस तरह नाशियां ध्वशन
की सूक्ष्म कम्पनों का प्रवाह होती है।
• उपशनषद में वणान है शक समूचे शरीर में नाशियों का शवस्तार शसर से लेकर पैर
क
े तलवों तक पाया जाता है। ये नाशियााँ जीवनदाशयनी श्वास द्वारा ऊजाा को पूरे
शरीर में प्रवाशहत करती है।
• नाशियां समस्त प्राणी मात्र क
े जीवन का आधार तथा आत्मशक्तक्त का स्रोत है।
• छांन्दोग्य और वृहदारण्यक उपशनषदों में स्पष्ट रूप से कहा गया है शक शरीर
में नाड़ी जाल की अत्यन्त सूक्ष्म रचना होती है। ये नाशियााँ संवेदनाओं, प्राण
उद्वेगों आशद को सतत प्रवाशहत करती रहती है।
• नागियोों की सोंख्या-
• हमारे शरीर में क्तस्थत नाड़ी जाल बहुत शवस्तृत है। शास्त्ों क
े अनुसार शरीर में
72000 नाशियां क्तस्थत है। परन्तु योग शवषयक ग्रन्ों में इसकी संख्या में
मतभेद पाया जाता है।
• शशव संशहता क
े अनुसार हमारे नाशभ क्षेत्र से साढे तीन लाख नाशियााँ शनकलती
है।
• प्रमुख नागियााँ –
• शजस प्रकार शकसी भी शवद् युत धारा मण्डल (सशक
ा ट) क
े शवद् युत पररचालन क
े
शलए तीन तार (धनात्मक, ऋणात्मक तथा उदासीन) की आवश्यकता पड़ती
है। ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में ऊजाा संचार की व्यवस्था का यह काया
तीन शवशेष नाशियों द्वारा होता है।
• यह तीन नाशियााँ है इडा ग ोंििा तथा सुषुम्ना। योग में इड़ा को ऋणात्मक
धारा प्रवाह क
े रूप में जो शक गत्यात्मक शारीररक शक्तक्त कही जाती है।
• शजस प्रकार घरों में शवपरीत धाराओं क
े शाटा सशक
ा ट से बचने क
े उद्देश्य से
एक भूधृत अशथिंग तार िाला जाता है शजसका एक शसरा भूशम में गड़ा होता है।
इसी प्रकार हमारे शरीर में भी इड़ा तथा शपंगला नाड़ी क
े शाटा सशक
ा ट को
टालने क
े उद्देश्य से एक उदासीन अथवा तटस्थ नाड़ी होती है।
• शजसका एक शसरा मूलाधार में क्तस्थत होता है। इसी को सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं।
सुषुम्ना नाड़ी का वास्तशवक प्रयोजन आध्याक्तत्मक शक्तक्त क
े शलए मागा प्रशस्त
करना होता है।
• गशव सोंगहता क
े अनुसार -
• सुषुम्णेिा ग ग्ििा च िान्धारी हक्तिगिक्तिका।
• क
ु हु: सरस्वती ूषा शगिवनी च यक्तस्वनी।
• वारुण्यिम्बुषा चैव गवव्श्रोदरी यशक्तस्वनी।
• एतासु गतस्त्ोों मुख्यास्स्यु: ग ग्ििेिासुषुक्तम्णका।। (गशवसोंगहता गितीय
टि -14 15)
• अथाात सुषुम्ना, इड़ा, शपंगला, गंधारी, हक्तस्तशजव्हा, क
ु हु, सरस्वती, पूषा,
शंक्तखनी, पयक्तस्वशन, वरूणी, अलम्बुषा, शवश्वोदरा और यशक्तस्वनी। इनमें भी
तीन मुख्य है इड़ा शपंगला तथा सुषुम्ना।
• वगशि सोंगहता क
े अनुसार चौदह नागिया है-
• नाडीनामग सवाथसाों मुख्याों: ुत्र चतुदशथ।। (वगशि सोंगहता 2-20)
अथाात हे पुत्र सभी नाशियों में 14 नाशियााँ मुख्य हैं। इन 14 नागियोों क
े नाम
इस प्रकार हैं- 1. इडा 2. ग ोंििा 3. सुषुम्ना 4. िाोंधारी 5. हक्तिगििा 6.
क
ु हु 7. सरस्वती 8. ूषा 9. शोंक्तखनी 10. यक्तस्वनी 11.
वारूणी 12.अिोंबुषा 13.गवश्वोदरा 14. यशक्तस्वनी
• इन चौदह नाशियों में से तीन नाशियााँ प्रमुख है- 1. इडा 2. ग ोंििा 3. सुषुम्ना
• 1. इडा नाडी- वायी नाशसका द्वारा प्रवाशहत होने वाली नाड़ी इड़ा है, जो
शीतलता का प्रतीक है। इसक
े कई अन्य नाम है जैसे चन्द्र, शीत, कफ,
अपान, राशत्र, जीव, शक्तक्त, तामस आशद।
• शरीर शवज्ञान की दृशष्ट से इंड़ा नाड़ी का सम्बन्ध हमारे परानुकम्पी तंशत्रकातंत्र
से होता है। इससे हमारे अंगों (क
ं ठ, नाशभ क
े बीच क्तस्थत अंगों) हृदय, फफड़ों
तथा पाचन संस्थानों को प्रेरणा जाती है, शजससे मांसपेशशयों में शशशथलीकरण
होने से तापमान में शगरावट आती है।
• इसशलए इस नाड़ी की प्रक
ृ शत, शचत्त को अन्तामुखी बनाने वाली तथा शीतल
मानी जाती है।
• इड़ा नाड़ी का उदगम स्थान रीढ की हििी का अधोभाग 'मूलाधार चि' माना
जाता है, तथा इसका अन्तशीषा आज्ञा चि' माना जाता है।
• इड़ानािी मूलाधार से बलखाती हुई शकसी को स्पशा शकये शबना सभी चिों
(स्वाशधष्ठान, मशणपुर अनाहत और शवशुक्ति) को पार करते हुए ऊपर
आज्ञाचक में पहुच कर शवलीन हो जाती है।
• इिा क
े प्रवाशहत होने से मक्तस्तष्क का दाया भाग शियाशील होता है। इड़ा
सुषुम्ना की उपनाड़ी है तथा मनस शक्तक्त या चन्द्र शक्तक्त की प्रदाशयनी है।
इसका रंग नीला होता है।
• 2. ग ोंििा नाडी- इसका प्रवाह हमारी दायीं नाशसका द्वारा होता है। प्राण
शक्तक्त प्रावाशहनी शपंगला नाड़ी को माना जाता है। क्ोंशक यह धनात्मक प्राण
ऊजाा को प्रवाशहत करती है। प्राण शक्तक्त की ऊजाा शरीर में जोश उत्पन्न
करती है। इसशलए इसे सूया नाड़ी क
े नाम से जाना जाता है।
• यह चेतना को बशहमुाखी भी बनाती है। और शरीर को स्फ
ू शता तथा कठोर
पररश्रम क
े शलए तैयार करती है। शपंगला नाड़ी का सीधा संबंध हमारे शरीर में
मेरूदण्ड की दाशहनी ओर क्तस्थत अनुकम्पी नाड़ी संस्थान से होता है।
• यह शरीर में हृदय की धड़कन तेज कर अशतररक्त ताप उत्पन्न करती है।
इसशलए कहा जाता है शक शपंगला नाड़ी शक्तक्त तथा उष्णता बढाती है तथा
शचत्त को बशहमुाखी बनाने वाली होती है। शपंगला नाड़ी (दाई नाशसका) का ताप
बायी नाशसका इड़ा नाड़ी से अशधक होता है। यह पुरानी यौशगक पिशत को
शसि करता है, इसको कई नामों से जाना जाता है जैसे सूया, ग्रीष्म, शपत्त,
प्राण, ब्रहम, राजस आशद।
• मूलाधार चि क
े दाशहने पाश्वा से शपंगला का उदगम होता है यह हर चि को
पार करते हुए लहराती हुई मेरूदण्ड क
े सहारे ऊपर उठती है। तथा दाशहने
नाशसका रन्ध्र क
े मूल में जहााँ आज्ञा चि है वहााँ समाि होती है।
• शपंगला नाड़ी मेरूदण्ड क
े दाशहने ओर समूचे शरीर को शनयशमत तथा
शनयक्तित करती है। शपंगला नाड़ी क
े प्रवाशहत होने पर मक्तस्तष्क का बायााँ भाग
शियाशील होता है।
• इस शपंगला नाड़ी का रंग लाल बताया जाता है। शपंगला नाड़ी द्वारा बाहरी
शारीररक कायो द्वारा उत्पन्न तनाव और थकावट व दबाव को सहने करने की
क्षमता बढाती है।
•
3. सुषुम्ना नािी-
• हमारा शरीर ऊजाा प्रवाह क
े पररप्रेक्ष्य में दो भागों में शवभक्त रहता है।
धनात्मक तथा ऋणात्मक बलों तथा ऊजाा प्रवाह क
े परस्पर क्तखचाव द्वारा ये
भाग शनयशमत होते है। तीसरा पक्ष मध्य अक्ष जहााँ धनात्मक तथा ऋणात्मक
ऊजाा शमलती हैं। दोनों समान हो जाती है। वहााँ पर ऊजाा तटस्थ होती है।
• जो उस अक्ष क
े ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर ऊजाा प्रवाशहत होती है। योग
में इस मध्य अक्ष को सुषुम्ना नाड़ी कहा जाता है।
• मेरूदण्ड क
े मूल से सुषुम्ना नाड़ी प्रारम्भ होती है, इसका मागा मेरूदण्ड में
एक दम सीधा होता है। यह मागा में आने वाले सभी चिों को भेदते हुए आगे
बढकर आज्ञाचि में इड़ा और शपंगलरा से जा शमलती है।
• मेरूदण्ड क
े मूल से सुषुम्ना नाड़ी प्रारम्भ होती है, इसका मागा मेरूदण्ड में
एक दम सीधा होता है। यह मागा में आने वाले सभी चिों को भेदते हुए आगे
बढकर आज्ञाचि में इड़ा और शपंगलरा से जा शमलती है।
• सुषुम्ना में असीशमत शक्तक्तयों का भण्डार है।
• सुषुम्ना जब जाग्रत अवस्था में होती है, तो पूरा मक्तस्तष्क शियाशील हो जाता है।
सुषुम्ना की शक्तक्त शजसे क
ु ण्डशलनी क
े नाम से जाना जाता है। मूलाधार में क्तस्थत होती
है। जब इड़ा व शपंगला नािी में प्राण एक साथ प्रवाशहत होती है तब प्राण और चेतना
का अंतर टू ट जाता है, एक अवस्था समरूप हो जाती है, तब क
ु ण्डशलनी स्वयं ही
सुषुम्ना नाड़ी से आज्ञा चि में पहुाँच जाती है।
• जहााँ इड़ा और शपंगला स्थूल शक्तक्त का शनमााण करती है। वहीं सूक्ष्म शक्तक्त का
शनमााण सुषुम्ना नाड़ी क
े द्वारा होता है। सुषुम्ना में असीशमत शक्तक्तयों का भण्डार है।
सुषुम्ना जब जाग्रत अवस्था में होती है, तो पूरा मक्तस्तष्क शियाशील हो जाता है।
सुषुम्ना की शक्तक्त शजसे क
ु ण्डशलनी कहते है।
• जब इड़ा व शपंगला नािी में प्राण एक साथ प्रवाशहत होती है तब प्राण और
चेतना का अंतर टू ट जाता है, एक अवस्था समरूप हो जाती है, तब
क
ु ण्डशलनी स्वयं ही सुषुम्ना नाड़ी से आज्ञा चि में पहुाँच जाती है।
• सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ही समस्त जानेक्तन्द्रयों और कमेक्तन्द्रयों में चेतना का संचार
होता है। सुषुम्ना नाड़ी का दू सरा नाम ब्रहमनाड़ी भी है। इसका रंग चााँदी क
े
समान होता है।
•
मानव शरीर मे चि
• हमारे शरीर में प्राण ऊजाा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी क
े एक शनशित मागा
द्वारा होता है। और एक शवशशष्ट शबन्दु पर इसका संगम होता है। यह शबन्दु
प्राण अथवा आक्तत्मक शक्तक्त का क
े न्द्र होते है। योग में इन्हें चि कहा जाता है।
• चि हमारे शरीर में ऊजाा क
े पररपथ का शनमााण करते हैं। यह पररपथ
मेरूदण्ड में होता है। चि उच्च तलों से ऊजाा को ग्रहण करते है तथा उसका
शवतरण मन और शरीर को करते है।
• चक्र' शब्द का अथथ-
• 'चि' का शाक्तब्दक अथा पशहया या वृत्त माना जाता है। शकन्तु इस संस्क
ृ त शब्द
का यौशगक दृशष्ट से अथा चिवात या भाँवर से है। चि अतीक्तन्द्रय शक्तक्त क
े न्द्रों
की ऐसी शवशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गशतमान रहती हैं।
• इन तरंगों को अनुभव शकया जा सकता है। हर चि की अपनी अलग तरंग
होती है। अलग अलग चि की तरंगगशत क
े अनुसार अलग अलग रंग को
घूणानशील प्रकाश क
े रूप में इन्हें देखा जाता है।
• योशगयों ने गहन ध्यान की क्तस्थशत में चिों को शवशभन्न दलों व रंगों वाले कमल
पुष्प क
े रूप में देखा। इसीशलए योगशास्त् में इन चिों को 'शरीर का कमल
पुष्प” कहा गया है।
• क
ु ण्डशलनी शक्तक्त क
े मूल में छ: द्वारों द्वारा पहुाँचा जा सकता है। इन्हे छ: द्वार
या छ: ताले भी कहा जा सकता है। यह द्वार या ताले खोलकर ही उन शक्तक्त
क
े न्द्रों तक साधक पहुाँच सकता है। आध्याक्तत्मक भाषा में इन्हीं छः: अवरोधों
को 'षट् चि' कहते हैं।
• सुषुम्ना क
े अन्तगात सबसे भीतर क्तस्थत ब्रहम नाड़ी से ये छ: चि सम्बक्तन्धत है
इनकी उपमा माला क
े सूत्र में शपरोये हुए कमल पुष्पों से की जाती है।
चक्र
मानव शरीर में चि
• शचत्र द्वारा यह समझा जा सकता है शक कौन सा चि शकस स्थान पर है
• मूलाधार चि योशन की सीध में
• स्वाशधष्ठान चि पेड़ू की सीध में,
• मशणपुर चि नाशभ की सीध में,
• अनाहत चि हृदय की सीध में,
• शवशुक्ति चि क
ं ठ की सीध में और
• आज्ञा चि भृक
ु शट क
े मध्य में अवक्तस्थत है।
• उनसे ऊपर सहस्त्ार है। चिों का शवस्तृत वणान इस प्रकार है।
• 1. मूिाधार चक्र-
• यह ऊजाा चि मेरूदण्ड क
े मूल में क्तस्थत है। मूलाधार का शाक्तब्दक अथा मूल
का अथा जड़ तथा आधार का अथा जगह होता है। मनुष्ों में शवकास यात्रा का
प्रस्थान शबन्दु मूलाधार होता है। मूलाधार उत्सजान संस्थान तथा जनन अंगों को
शनयक्तित करता है।
• इसका सम्बन्ध नाशसका तथा प्राण शक्तक्त से होता है। मूलाधार को सशिय
नाशसकाग्र दृशष्ट क
े अभ्यास द्वारा शकया जा सकता है।
मूलाधार चि की आक
ृ शत चतुष्कोण रक्त वणा चार दलों वाला कमल होता है।
इसक
े भीतर पीले रंग का वगा होता है।
• चारोों दिोों में अक्षर अथाथत वणथ है।
• चारोों ोंखुगियोों र वों शों षों सों ये चार मागत्रका वणा है। चार माशत्रका वणो
की चार ही वृशत्तयााँ है काम, िोध, लोभ और मोह।
• चतुष्कोण युक्त सुवणा रंग क
े सहश पृथ्वी तत्व का मुख्य स्थान है, इसका तत्व
बीि 'िों' है
• और इस पृथ्वी तत्व का गुण गन्ध है। इसमें लोक भू-लोक है। तत्व बीज का
वाहन ऐरावत हाथी है। शजसक
े उपर इन्द्रदेव शवराजमान है। इसक
े अशधपशत
देवता चतुमुाख वाले ब्रहमा जी है। वह अपने शक्तक्त चतुभुाजा िाशकनी क
े साथ
शवराजमान है।
• मूिाधार चक्र क
े ध्यान का फि-
• इसक
े ध्यान का फल इस प्रकार है आनन्द व आरोग्यता का उदय होना, वाक्
शसक्ति, सृजनात्मकता, काव्य शसक्ति आशद दक्षता प्राि करना आशद शवशेष
लराभ है।
• 2. स्वागधष्ठान चक्र- मुलाधार चि से दो अंगुल ऊपर पेि
ू क
े पास स्वाशधष्ठान
का स्थान है। स्व का अथा है स्वयं और अशधष्ठान का अथा जगह होता है। जब
स्वाशधष्ठान में चेतना और ऊजाा काया करने लगती है तो साधक में स्व तथा
अहम की चेतना जाग्रत होने लगती है। स्वाशधष्ठान व मूलाधार मेाँ शनकटतम
सम्बन्ध होता है। यह जनन अंगों से सम्बक्तन्धत ग्रक्तन्यों को प्रभाशवत करता है।
• इस चि की आक
ृ शत शसन्दुरी रंग क
े प्रकाश से युक्त छ: पंखुिी-दलों वाला कमल
क
े समान हैं।
• इन छ: दलों पर बं, भं, मं, यं, रं, लं, ये छ: माशत्रका वणा हैं । इन छ दलों की छः
प्रकार की वृशत्तयां है।
• ये है प्रश्रय, अवज्ञा, मूर्च्ाा, शवश्वास, सवानाश और क़्र
ू रता। इसमें अिचान्द्राकार
युक्त जल तत्व 'बं' श्वेत रंग का मुख्य स्थान है। जल तत्व का बीि 'बों' है इस जल
तत्व का गुण रस है। इसका लोक भुवलोक है।
• जल तत्व बीज का वाहन मकर है। शजसक
े उपर जल देवता वरुणदेव शवराजमान
है। इसक
े अशधपशत देवता शवष्णु हैं जो अपनी चतुभुाजा वाली राशकनी शक्तक्त क
े
साथ शोभायमान है।
• स्वागधष्ठान चक्र क
े ध्यान का फि-
• इसक
े बीज मंत्र का मानशसक जाप करते हुए स्वाशधष्ठान चि का ध्यान करने
से प्रबुि बुक्ति का उदय होता है। तथा शजह्वा में सरस्वती का वास होता है तथा
नवशनमााण की शक्तक्त प्राि होती है।
• 3. मगण ुर चक्र- मशणपूर चि हमारे शरीर में मेरूदण्ड क
े पीछे क्तस्थत होता
है। मशणपुर का शाक्तब्दक अथा मशण का अथा मोती तथा पुर का अथा नगर होता
है अत: मशणपूर को मोशतयों, मशणयों का नगर भी कहा जाता है।
• यहााँ नाशियों क
े शमलन क
े उपरान्त तीव्र आलोक का शवकरण होता है। इस आलोक
की तुलना योग ग्रन्ों में जाज्यल्यमान मोशतयों की आभा से की गई है।
• मशणपुर में अशग्न तत्व क्तस्थत माना जाता है। जो जठराशग्न को प्रदीि करता है।
• मशणपुर चि का संबंध आत्मीकरण, प्राण ऊजाा और भोजन क
े पाचन से है।
• मशणपुर चि का स्थान नाशभमूल है।
• इसकी आक
ृ शत अरुण आभा युक्त आलोशकत दस दलों वाले कमल क
े समान
होती है, इनक
े दस दलों में दस माशत्रका वणा है िं, ढं, णं, तं, थं, दं, थं, नं, पं,
फ
ं , इन दस मशत्रका वणों या अक्षरों की ध्वशनयााँ शवशभन्न प्रकार से होकर
शनकलती है। इन दस दलों की दस वृशत्तयााँ इस प्रकार है लज्जा, ईष्ाा, सुषुक्ति,
शवषाद, कषाद, तृष्णा, मोह, घृणा और भय। शत्रकोणाकार रक्तवणा अशग्नतत्व
का मुख्य स्थान है। अशग्नतत्व का बीज 'रं' है। अशग्नतत्व की स्वाभाशवक
गुणानुसार इस तत्वबीज की गशत ऊपर की ओर होती है तत्वबीज का वाहक
मेष है और उसक
े ऊपर अशग्नदेवता शवराजमान हैं इसका अशधपशत देवता इन्द्र
अपनी चतुभुजाा शक्तक्त लाशकनी क
े साथ शोभायमान है।
• मगण ुर चक्र क
े ध्यान का फि- अशग्न क
े ध्यान बीज मंत्र 'रं' का ध्यान करने
से मानशसक कायव्यूह का ज्ञान हो जाता है और पालन तथा संहार की शक्तक्त
आती है। योगी तेजस्वी हो जाता है। शरीर काक्तन्तयुक्त हो जाता है।
•
4. अनाहत चक्र- चौथे चि का नाम अनाहत चि है। हमारे शरीर में क्तस्थत
मेरूदण्ड में हृदय क
े पीछे अनाहत चि है। अनाहत यशद शाक्तब्दक अथा शलया
जाए तो अनाहत का अथा होता है 'चोट नहीं करना' इस अनाहत चि का
स्थान हृदय प्रदेश है।
• अनाहत चि आक
ृ शत परम उज्जवल नव पुक्तष्पत कमलाकार धूसर रंग युक्त
है। इस चि में बारह दल होते है, बारह दलों पर बारह माशत्रका वणा है। क
ं ,
खं, गं, घं, िं, चं, छं , जं, झं, नं, टं, ठं , इन द्वादस वायुतत्व क
े गुण धमा वृशत्तयााँ
है- आशा, शचन्ता, चेष्टा, मतता, दम्भ, शवफलता, शववेक, अंहकार, कपटता,
शवतक
ा और अनुताप, वायुतत्व का बीज “यं' है और इस तत्वबीज की गशत
शतयाक गशत है। वायुतत्व का गुण स्पशा है। इसको शास्त् में शदव्य लोक भी
कहा गया है। इसका अशधपशत देवता रुद्र है जो अपनी शत्रनेत्रा चतुभुाजा शक्तक्त
काशकनी क
े साथ शवराजमान है। षटकोणयुक्त इस चि का यि है और
उसका रंग ध्रूमवणा है।
• अनाहत चक्र क
े ध्यान का फि- वायुतत्व क
े बीज “यं' का मानशसक जाप
करते हुए इस चि का ध्यान करने से वाक
् अशधक्तिय, अथाात कशवत्व शक्तक्त
प्राि हो जाती है। ध्यान अशधक करने से 10 प्रकार क
े नाद तथा श्रुशतगोचर
होने लगते है।
•
5. गवशुक्ति चक्र- पांचवा चि शवशुक्ति चि हमारे शरीर में क्तस्थत मेरूदण्ड में
कण्ठ क
े पीछे क्तस्थत है। इसका शाक्तब्दक अथा 'शव' अथाात शवशेष, शजसकी
तुलना नहीं हो सकती है और शुक्ति का अथा शुि करने से शलया जाता है।
शवशुक्ति चि शरीर में शवषाक्त तत्वों को फ
ै लने से रोकता है।
• इसका प्रभाव स्वर यंत्र, गले, टॉशसल, आशद ग्रंशथयों पर पड़ता है।
इसकी आक
ृ शत नील आभा युक्त क्तखले हुए कमल क
े समान है। इसमें 16 दल
होते है। सोहल दलों पर सोलह माशत्रका वणा हैं- अं, आं, इं, ई, उं, ऊ
ं , ऋ
ं , ऋ,
लृं, एं , ओं, औं, आं, अः।
• इन सोलह दलों पर आकाश तत्व की वृशत्तयों है जो सोलह है- शनषाद, ऋषभ,
गान्धार, षिश, मध्यम, धौवत, पंचम ये सात स्वर रूप में है और अं, हं, फट,
वषट, स्वधा, स्वाहा स्वर रूप में है और अमृत यह शबना स्वर क
े हैं। आकाश
तत्व का 'हं' बीज है। इस तत्व की गशत गम्भीर होती है। आकाश तत्व का गुण
'शब्द' होता है।
• जो ऊपर की ओर गशत करने वाला है। आकाश तत्वबीज का वाहन हस्ती
शजसक
े ऊपर प्रकाश देवता है। इसक
े अशधपशत देवता पंच मुख वाले सदाशशव
हैं जो अपनी शक्तक्त चतुाभुज, 'शाशकनी' क
े साथ शवराजमान है। इसका यि
पूणाचन्द्रमा क
े वृत्ताकार आकाश मण्डल क
े समान है।
• गवशुक्ति चक्र क
े ध्यान का फि- आकाश तत्व का बीज 'हं' का जाप करते
हुए शवशुक्ति चि का ध्यान करना चाशहए। शवशुक्ति चि में ध्यान करने से भूत,
वतामान और भशवष् इन तीनों कालों का ज्ञान हो जाता है। साधक ज्ञानवान,
तेजस्वी, शांत शचत्त और दीघाजीवी हो जाता है।
• 6. आज्ञा चक्र- छटा चि आज्ञाचि कहलाता है। आज्ञा चि हमारे शरीर में
मेरूदण्ड क
े उपरी छोर पर भूमध्य क
े पीछे क्तस्थत होता है। इसका सम्बन्ध
शपशनयल ग्रक्तन् से होता है। इसी को तीसरा नेत्र भी कहा जाता है इस चि की
आक
ृ शत दो दलों वाला कमल क
े समान होती है। दोनों दलों पर माशत्रका वणा
हं' और “क्ष' है। इनकी वृशत्तयााँ भी दो ही है प्रवृशत्त और अहंमन्यता। इसका
तत्व महत तत्व है। इसक
े तत्वबीज ऊ
ाँ है और तत्व बीज की गशत नाद है।
तत्वबीज क
े वाहन नाद पर शलंग देवता शवराजमान हैं। इसका अशधपशत देवता
ज्ञान प्रदाता शशव है जो शक चतुभुाजा षड़ानना (छ: मुखवली) 'हाशकनी' शक्तक्त
क
े साथ शोभायमान है। इसका यि शलंगाकार क
े समान वतुाल है।
• आज्ञा चक्र क
े ध्यान का फि- इस चि का ध्यान, ऊ
ाँ बीज मंत्र का मानशसक
जप करने से प्रशतभ चक्षु या शदव्य नेत्र खुल जाते है योगी को शदव्य-दृशष्ट शमलती
है। शदव्य योग दृशष्ट प्राि योगी को शवश्व-ब्रहमाण्ड में हर तत्व का ज्ञान हो जाता
है। उससे कोई भी तत्व अज्ञात नहीं रहता है।
7. सहस्रार चक्र- सबसे ऊपर और सबक
े अन्त में यह सहस्रार चि, सहस्त्
दल कमल क
े रूप में शवद्यमान है। यह सहस्रार चि क
े सूक्ष्म स्वरूप का
स्थूल रूप मात्र है। इसका स्थान, जो सभी शक्तक्तयों का क
े न्द्र स्थान है ब्रह्मताल
या ब्रहमरंध क
े ऊपर मक्तस्तष्क में है।
• शवशभन्न प्रकार क
े रंगों क
े प्रकाश से युक्त हजार दलों वाले कमल क
े समान
इसकी आक
ृ शत है। वह कमल एक छत्री क
े समान अधा: मुख शवकशसत है।
• इन सहस्र दलों पर मशत्रका समूह अं से लेकर 'क्ष' शवद्यमान है। शजसमें समस्त
स्वर और व्यंजन वणा समूह शवद्यमान है। इसका तत्व तत्वातीत है।
• शबंदु तत्वबीज का वाहन है तथा अशधपशत देवता परब्रह्म (शशव) हैं। जो अपनी
महाशक्तक्त क
े साथ शोभा पा रहे हैं। इसका लोक अक्तन्तम सत्य लोक है। इससे
ऊपर कोई लोक नहीं है।
• इस सहस्रार चि का यि शुभ आभा युक्त पूणा चन्द्रमा क
े समान वतुाल है।
वही पर इस यि में क
ु ण्डशलनी शक्तक्त उपक्तस्थत होकर सदैव परमात्मा क
े
साथ युग्म रूप में पर महाशक्तक्त से शमलन होता है। यहां पर शशव और शक्तक्त
का शमलन होता है।
क
ु ण्डशलनी शक्तक्त परम शशव क
े साथ लीन होने क
े साथ ही शवशभन्न चिों की
शक्तक्तयों अहंकार, शचत्त, बुक्ति तथा मन क
े साथ सम्पूणा रूप से परमात्मा में
शवलीन हो जाती है तत्पिात साधक को इस जगत का भी भान नहीं रहता और
उसे असम्प्रज्ञात समाशध की प्राक्ति हो जाती है। इसका फल अमरत्व या
अमरपद की प्राक्ति होती है।

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  • 1. योगिक दृगि से मानव शरीर में नाडी, चक्र तथा क ु ण्डगिनी शक्ति योि साधना का आधार है। नाड़ी
  • 2. • मानव शरीर में प्राण संचालन का तंत्र जाल फ ै ला है। इस मानव शरीर में श्वास प्रश्वास द्वारा शरीर में प्राण ऊजाा क े क्षेत्र आवेशशत होते है। ऊजाा उत्पादन में हमारी श्वास प्रश्वास की प्रशिया अहम भूशमका शनभाती हैं। • श्वास प्रश्वास द्वारा उत्पाशदत ऊजाा को ऊजाा संग्राहकों, शजन्हें योग की भाषा में चि कहा जाता है, में शदशान्तररत कर शदया जाता है। • नाशियां संवेदनाओं एवं प्राण को प्रवाशहत करती है। स्थूल शरीर में इन्हें नवा क े रूप में, जाना जा सकता है जो रक्त प्रवाह में सहायक होती है। परन्तु योग में जो नाशियााँ वशणात है उन्हें नग्न ओंखों से नहीं देखा जा सकता है। क्ोंशक वे अशत सूक्ष्म होती है और उनमें सूक्ष्म प्राण शक्तक्त ही प्रवाशहत होती है।
  • 3. • नाडी शब्द का अथथ- • नाड़ी शब्द की व्युत्पक्ति संस्क ृ त क े नाि् शब्द से हुई है। शजसका अथा है प्रवाह। सूक्ष्म ध्वशन कम्पनों को भी नाद कहा जाता है। इस तरह नाशियां ध्वशन की सूक्ष्म कम्पनों का प्रवाह होती है। • उपशनषद में वणान है शक समूचे शरीर में नाशियों का शवस्तार शसर से लेकर पैर क े तलवों तक पाया जाता है। ये नाशियााँ जीवनदाशयनी श्वास द्वारा ऊजाा को पूरे शरीर में प्रवाशहत करती है। • नाशियां समस्त प्राणी मात्र क े जीवन का आधार तथा आत्मशक्तक्त का स्रोत है।
  • 4. • छांन्दोग्य और वृहदारण्यक उपशनषदों में स्पष्ट रूप से कहा गया है शक शरीर में नाड़ी जाल की अत्यन्त सूक्ष्म रचना होती है। ये नाशियााँ संवेदनाओं, प्राण उद्वेगों आशद को सतत प्रवाशहत करती रहती है। • नागियोों की सोंख्या- • हमारे शरीर में क्तस्थत नाड़ी जाल बहुत शवस्तृत है। शास्त्ों क े अनुसार शरीर में 72000 नाशियां क्तस्थत है। परन्तु योग शवषयक ग्रन्ों में इसकी संख्या में मतभेद पाया जाता है। • शशव संशहता क े अनुसार हमारे नाशभ क्षेत्र से साढे तीन लाख नाशियााँ शनकलती है।
  • 5. • प्रमुख नागियााँ – • शजस प्रकार शकसी भी शवद् युत धारा मण्डल (सशक ा ट) क े शवद् युत पररचालन क े शलए तीन तार (धनात्मक, ऋणात्मक तथा उदासीन) की आवश्यकता पड़ती है। ठीक उसी प्रकार हमारे शरीर में ऊजाा संचार की व्यवस्था का यह काया तीन शवशेष नाशियों द्वारा होता है। • यह तीन नाशियााँ है इडा ग ोंििा तथा सुषुम्ना। योग में इड़ा को ऋणात्मक धारा प्रवाह क े रूप में जो शक गत्यात्मक शारीररक शक्तक्त कही जाती है।
  • 6. • शजस प्रकार घरों में शवपरीत धाराओं क े शाटा सशक ा ट से बचने क े उद्देश्य से एक भूधृत अशथिंग तार िाला जाता है शजसका एक शसरा भूशम में गड़ा होता है। इसी प्रकार हमारे शरीर में भी इड़ा तथा शपंगला नाड़ी क े शाटा सशक ा ट को टालने क े उद्देश्य से एक उदासीन अथवा तटस्थ नाड़ी होती है। • शजसका एक शसरा मूलाधार में क्तस्थत होता है। इसी को सुषुम्ना नाड़ी कहते हैं। सुषुम्ना नाड़ी का वास्तशवक प्रयोजन आध्याक्तत्मक शक्तक्त क े शलए मागा प्रशस्त करना होता है।
  • 7. • गशव सोंगहता क े अनुसार - • सुषुम्णेिा ग ग्ििा च िान्धारी हक्तिगिक्तिका। • क ु हु: सरस्वती ूषा शगिवनी च यक्तस्वनी। • वारुण्यिम्बुषा चैव गवव्श्रोदरी यशक्तस्वनी। • एतासु गतस्त्ोों मुख्यास्स्यु: ग ग्ििेिासुषुक्तम्णका।। (गशवसोंगहता गितीय टि -14 15)
  • 8. • अथाात सुषुम्ना, इड़ा, शपंगला, गंधारी, हक्तस्तशजव्हा, क ु हु, सरस्वती, पूषा, शंक्तखनी, पयक्तस्वशन, वरूणी, अलम्बुषा, शवश्वोदरा और यशक्तस्वनी। इनमें भी तीन मुख्य है इड़ा शपंगला तथा सुषुम्ना। • वगशि सोंगहता क े अनुसार चौदह नागिया है- • नाडीनामग सवाथसाों मुख्याों: ुत्र चतुदशथ।। (वगशि सोंगहता 2-20) अथाात हे पुत्र सभी नाशियों में 14 नाशियााँ मुख्य हैं। इन 14 नागियोों क े नाम इस प्रकार हैं- 1. इडा 2. ग ोंििा 3. सुषुम्ना 4. िाोंधारी 5. हक्तिगििा 6. क ु हु 7. सरस्वती 8. ूषा 9. शोंक्तखनी 10. यक्तस्वनी 11. वारूणी 12.अिोंबुषा 13.गवश्वोदरा 14. यशक्तस्वनी
  • 9. • इन चौदह नाशियों में से तीन नाशियााँ प्रमुख है- 1. इडा 2. ग ोंििा 3. सुषुम्ना • 1. इडा नाडी- वायी नाशसका द्वारा प्रवाशहत होने वाली नाड़ी इड़ा है, जो शीतलता का प्रतीक है। इसक े कई अन्य नाम है जैसे चन्द्र, शीत, कफ, अपान, राशत्र, जीव, शक्तक्त, तामस आशद। • शरीर शवज्ञान की दृशष्ट से इंड़ा नाड़ी का सम्बन्ध हमारे परानुकम्पी तंशत्रकातंत्र से होता है। इससे हमारे अंगों (क ं ठ, नाशभ क े बीच क्तस्थत अंगों) हृदय, फफड़ों तथा पाचन संस्थानों को प्रेरणा जाती है, शजससे मांसपेशशयों में शशशथलीकरण होने से तापमान में शगरावट आती है।
  • 10. • इसशलए इस नाड़ी की प्रक ृ शत, शचत्त को अन्तामुखी बनाने वाली तथा शीतल मानी जाती है। • इड़ा नाड़ी का उदगम स्थान रीढ की हििी का अधोभाग 'मूलाधार चि' माना जाता है, तथा इसका अन्तशीषा आज्ञा चि' माना जाता है। • इड़ानािी मूलाधार से बलखाती हुई शकसी को स्पशा शकये शबना सभी चिों (स्वाशधष्ठान, मशणपुर अनाहत और शवशुक्ति) को पार करते हुए ऊपर आज्ञाचक में पहुच कर शवलीन हो जाती है।
  • 11. • इिा क े प्रवाशहत होने से मक्तस्तष्क का दाया भाग शियाशील होता है। इड़ा सुषुम्ना की उपनाड़ी है तथा मनस शक्तक्त या चन्द्र शक्तक्त की प्रदाशयनी है। इसका रंग नीला होता है। • 2. ग ोंििा नाडी- इसका प्रवाह हमारी दायीं नाशसका द्वारा होता है। प्राण शक्तक्त प्रावाशहनी शपंगला नाड़ी को माना जाता है। क्ोंशक यह धनात्मक प्राण ऊजाा को प्रवाशहत करती है। प्राण शक्तक्त की ऊजाा शरीर में जोश उत्पन्न करती है। इसशलए इसे सूया नाड़ी क े नाम से जाना जाता है।
  • 12. • यह चेतना को बशहमुाखी भी बनाती है। और शरीर को स्फ ू शता तथा कठोर पररश्रम क े शलए तैयार करती है। शपंगला नाड़ी का सीधा संबंध हमारे शरीर में मेरूदण्ड की दाशहनी ओर क्तस्थत अनुकम्पी नाड़ी संस्थान से होता है। • यह शरीर में हृदय की धड़कन तेज कर अशतररक्त ताप उत्पन्न करती है। इसशलए कहा जाता है शक शपंगला नाड़ी शक्तक्त तथा उष्णता बढाती है तथा शचत्त को बशहमुाखी बनाने वाली होती है। शपंगला नाड़ी (दाई नाशसका) का ताप बायी नाशसका इड़ा नाड़ी से अशधक होता है। यह पुरानी यौशगक पिशत को शसि करता है, इसको कई नामों से जाना जाता है जैसे सूया, ग्रीष्म, शपत्त, प्राण, ब्रहम, राजस आशद।
  • 13. • मूलाधार चि क े दाशहने पाश्वा से शपंगला का उदगम होता है यह हर चि को पार करते हुए लहराती हुई मेरूदण्ड क े सहारे ऊपर उठती है। तथा दाशहने नाशसका रन्ध्र क े मूल में जहााँ आज्ञा चि है वहााँ समाि होती है। • शपंगला नाड़ी मेरूदण्ड क े दाशहने ओर समूचे शरीर को शनयशमत तथा शनयक्तित करती है। शपंगला नाड़ी क े प्रवाशहत होने पर मक्तस्तष्क का बायााँ भाग शियाशील होता है। • इस शपंगला नाड़ी का रंग लाल बताया जाता है। शपंगला नाड़ी द्वारा बाहरी शारीररक कायो द्वारा उत्पन्न तनाव और थकावट व दबाव को सहने करने की क्षमता बढाती है।
  • 14. • 3. सुषुम्ना नािी- • हमारा शरीर ऊजाा प्रवाह क े पररप्रेक्ष्य में दो भागों में शवभक्त रहता है। धनात्मक तथा ऋणात्मक बलों तथा ऊजाा प्रवाह क े परस्पर क्तखचाव द्वारा ये भाग शनयशमत होते है। तीसरा पक्ष मध्य अक्ष जहााँ धनात्मक तथा ऋणात्मक ऊजाा शमलती हैं। दोनों समान हो जाती है। वहााँ पर ऊजाा तटस्थ होती है। • जो उस अक्ष क े ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर ऊजाा प्रवाशहत होती है। योग में इस मध्य अक्ष को सुषुम्ना नाड़ी कहा जाता है।
  • 15. • मेरूदण्ड क े मूल से सुषुम्ना नाड़ी प्रारम्भ होती है, इसका मागा मेरूदण्ड में एक दम सीधा होता है। यह मागा में आने वाले सभी चिों को भेदते हुए आगे बढकर आज्ञाचि में इड़ा और शपंगलरा से जा शमलती है। • मेरूदण्ड क े मूल से सुषुम्ना नाड़ी प्रारम्भ होती है, इसका मागा मेरूदण्ड में एक दम सीधा होता है। यह मागा में आने वाले सभी चिों को भेदते हुए आगे बढकर आज्ञाचि में इड़ा और शपंगलरा से जा शमलती है।
  • 16. • सुषुम्ना में असीशमत शक्तक्तयों का भण्डार है। • सुषुम्ना जब जाग्रत अवस्था में होती है, तो पूरा मक्तस्तष्क शियाशील हो जाता है। सुषुम्ना की शक्तक्त शजसे क ु ण्डशलनी क े नाम से जाना जाता है। मूलाधार में क्तस्थत होती है। जब इड़ा व शपंगला नािी में प्राण एक साथ प्रवाशहत होती है तब प्राण और चेतना का अंतर टू ट जाता है, एक अवस्था समरूप हो जाती है, तब क ु ण्डशलनी स्वयं ही सुषुम्ना नाड़ी से आज्ञा चि में पहुाँच जाती है। • जहााँ इड़ा और शपंगला स्थूल शक्तक्त का शनमााण करती है। वहीं सूक्ष्म शक्तक्त का शनमााण सुषुम्ना नाड़ी क े द्वारा होता है। सुषुम्ना में असीशमत शक्तक्तयों का भण्डार है। सुषुम्ना जब जाग्रत अवस्था में होती है, तो पूरा मक्तस्तष्क शियाशील हो जाता है। सुषुम्ना की शक्तक्त शजसे क ु ण्डशलनी कहते है।
  • 17. • जब इड़ा व शपंगला नािी में प्राण एक साथ प्रवाशहत होती है तब प्राण और चेतना का अंतर टू ट जाता है, एक अवस्था समरूप हो जाती है, तब क ु ण्डशलनी स्वयं ही सुषुम्ना नाड़ी से आज्ञा चि में पहुाँच जाती है। • सुषुम्ना नाड़ी द्वारा ही समस्त जानेक्तन्द्रयों और कमेक्तन्द्रयों में चेतना का संचार होता है। सुषुम्ना नाड़ी का दू सरा नाम ब्रहमनाड़ी भी है। इसका रंग चााँदी क े समान होता है। •
  • 18. मानव शरीर मे चि • हमारे शरीर में प्राण ऊजाा का सूक्ष्म प्रवाह प्रत्येक नाड़ी क े एक शनशित मागा द्वारा होता है। और एक शवशशष्ट शबन्दु पर इसका संगम होता है। यह शबन्दु प्राण अथवा आक्तत्मक शक्तक्त का क े न्द्र होते है। योग में इन्हें चि कहा जाता है। • चि हमारे शरीर में ऊजाा क े पररपथ का शनमााण करते हैं। यह पररपथ मेरूदण्ड में होता है। चि उच्च तलों से ऊजाा को ग्रहण करते है तथा उसका शवतरण मन और शरीर को करते है।
  • 19. • चक्र' शब्द का अथथ- • 'चि' का शाक्तब्दक अथा पशहया या वृत्त माना जाता है। शकन्तु इस संस्क ृ त शब्द का यौशगक दृशष्ट से अथा चिवात या भाँवर से है। चि अतीक्तन्द्रय शक्तक्त क े न्द्रों की ऐसी शवशेष तरंगे हैं, जो वृत्ताकार रूप में गशतमान रहती हैं। • इन तरंगों को अनुभव शकया जा सकता है। हर चि की अपनी अलग तरंग होती है। अलग अलग चि की तरंगगशत क े अनुसार अलग अलग रंग को घूणानशील प्रकाश क े रूप में इन्हें देखा जाता है।
  • 20. • योशगयों ने गहन ध्यान की क्तस्थशत में चिों को शवशभन्न दलों व रंगों वाले कमल पुष्प क े रूप में देखा। इसीशलए योगशास्त् में इन चिों को 'शरीर का कमल पुष्प” कहा गया है। • क ु ण्डशलनी शक्तक्त क े मूल में छ: द्वारों द्वारा पहुाँचा जा सकता है। इन्हे छ: द्वार या छ: ताले भी कहा जा सकता है। यह द्वार या ताले खोलकर ही उन शक्तक्त क े न्द्रों तक साधक पहुाँच सकता है। आध्याक्तत्मक भाषा में इन्हीं छः: अवरोधों को 'षट् चि' कहते हैं। • सुषुम्ना क े अन्तगात सबसे भीतर क्तस्थत ब्रहम नाड़ी से ये छ: चि सम्बक्तन्धत है इनकी उपमा माला क े सूत्र में शपरोये हुए कमल पुष्पों से की जाती है।
  • 22. • शचत्र द्वारा यह समझा जा सकता है शक कौन सा चि शकस स्थान पर है • मूलाधार चि योशन की सीध में • स्वाशधष्ठान चि पेड़ू की सीध में, • मशणपुर चि नाशभ की सीध में, • अनाहत चि हृदय की सीध में, • शवशुक्ति चि क ं ठ की सीध में और • आज्ञा चि भृक ु शट क े मध्य में अवक्तस्थत है। • उनसे ऊपर सहस्त्ार है। चिों का शवस्तृत वणान इस प्रकार है।
  • 23. • 1. मूिाधार चक्र- • यह ऊजाा चि मेरूदण्ड क े मूल में क्तस्थत है। मूलाधार का शाक्तब्दक अथा मूल का अथा जड़ तथा आधार का अथा जगह होता है। मनुष्ों में शवकास यात्रा का प्रस्थान शबन्दु मूलाधार होता है। मूलाधार उत्सजान संस्थान तथा जनन अंगों को शनयक्तित करता है। • इसका सम्बन्ध नाशसका तथा प्राण शक्तक्त से होता है। मूलाधार को सशिय नाशसकाग्र दृशष्ट क े अभ्यास द्वारा शकया जा सकता है। मूलाधार चि की आक ृ शत चतुष्कोण रक्त वणा चार दलों वाला कमल होता है। इसक े भीतर पीले रंग का वगा होता है।
  • 24. • चारोों दिोों में अक्षर अथाथत वणथ है। • चारोों ोंखुगियोों र वों शों षों सों ये चार मागत्रका वणा है। चार माशत्रका वणो की चार ही वृशत्तयााँ है काम, िोध, लोभ और मोह। • चतुष्कोण युक्त सुवणा रंग क े सहश पृथ्वी तत्व का मुख्य स्थान है, इसका तत्व बीि 'िों' है • और इस पृथ्वी तत्व का गुण गन्ध है। इसमें लोक भू-लोक है। तत्व बीज का वाहन ऐरावत हाथी है। शजसक े उपर इन्द्रदेव शवराजमान है। इसक े अशधपशत देवता चतुमुाख वाले ब्रहमा जी है। वह अपने शक्तक्त चतुभुाजा िाशकनी क े साथ शवराजमान है।
  • 25. • मूिाधार चक्र क े ध्यान का फि- • इसक े ध्यान का फल इस प्रकार है आनन्द व आरोग्यता का उदय होना, वाक् शसक्ति, सृजनात्मकता, काव्य शसक्ति आशद दक्षता प्राि करना आशद शवशेष लराभ है। • 2. स्वागधष्ठान चक्र- मुलाधार चि से दो अंगुल ऊपर पेि ू क े पास स्वाशधष्ठान का स्थान है। स्व का अथा है स्वयं और अशधष्ठान का अथा जगह होता है। जब स्वाशधष्ठान में चेतना और ऊजाा काया करने लगती है तो साधक में स्व तथा अहम की चेतना जाग्रत होने लगती है। स्वाशधष्ठान व मूलाधार मेाँ शनकटतम सम्बन्ध होता है। यह जनन अंगों से सम्बक्तन्धत ग्रक्तन्यों को प्रभाशवत करता है।
  • 26. • इस चि की आक ृ शत शसन्दुरी रंग क े प्रकाश से युक्त छ: पंखुिी-दलों वाला कमल क े समान हैं। • इन छ: दलों पर बं, भं, मं, यं, रं, लं, ये छ: माशत्रका वणा हैं । इन छ दलों की छः प्रकार की वृशत्तयां है। • ये है प्रश्रय, अवज्ञा, मूर्च्ाा, शवश्वास, सवानाश और क़्र ू रता। इसमें अिचान्द्राकार युक्त जल तत्व 'बं' श्वेत रंग का मुख्य स्थान है। जल तत्व का बीि 'बों' है इस जल तत्व का गुण रस है। इसका लोक भुवलोक है। • जल तत्व बीज का वाहन मकर है। शजसक े उपर जल देवता वरुणदेव शवराजमान है। इसक े अशधपशत देवता शवष्णु हैं जो अपनी चतुभुाजा वाली राशकनी शक्तक्त क े साथ शोभायमान है।
  • 27. • स्वागधष्ठान चक्र क े ध्यान का फि- • इसक े बीज मंत्र का मानशसक जाप करते हुए स्वाशधष्ठान चि का ध्यान करने से प्रबुि बुक्ति का उदय होता है। तथा शजह्वा में सरस्वती का वास होता है तथा नवशनमााण की शक्तक्त प्राि होती है। • 3. मगण ुर चक्र- मशणपूर चि हमारे शरीर में मेरूदण्ड क े पीछे क्तस्थत होता है। मशणपुर का शाक्तब्दक अथा मशण का अथा मोती तथा पुर का अथा नगर होता है अत: मशणपूर को मोशतयों, मशणयों का नगर भी कहा जाता है।
  • 28. • यहााँ नाशियों क े शमलन क े उपरान्त तीव्र आलोक का शवकरण होता है। इस आलोक की तुलना योग ग्रन्ों में जाज्यल्यमान मोशतयों की आभा से की गई है। • मशणपुर में अशग्न तत्व क्तस्थत माना जाता है। जो जठराशग्न को प्रदीि करता है। • मशणपुर चि का संबंध आत्मीकरण, प्राण ऊजाा और भोजन क े पाचन से है। • मशणपुर चि का स्थान नाशभमूल है।
  • 29. • इसकी आक ृ शत अरुण आभा युक्त आलोशकत दस दलों वाले कमल क े समान होती है, इनक े दस दलों में दस माशत्रका वणा है िं, ढं, णं, तं, थं, दं, थं, नं, पं, फ ं , इन दस मशत्रका वणों या अक्षरों की ध्वशनयााँ शवशभन्न प्रकार से होकर शनकलती है। इन दस दलों की दस वृशत्तयााँ इस प्रकार है लज्जा, ईष्ाा, सुषुक्ति, शवषाद, कषाद, तृष्णा, मोह, घृणा और भय। शत्रकोणाकार रक्तवणा अशग्नतत्व का मुख्य स्थान है। अशग्नतत्व का बीज 'रं' है। अशग्नतत्व की स्वाभाशवक गुणानुसार इस तत्वबीज की गशत ऊपर की ओर होती है तत्वबीज का वाहक मेष है और उसक े ऊपर अशग्नदेवता शवराजमान हैं इसका अशधपशत देवता इन्द्र अपनी चतुभुजाा शक्तक्त लाशकनी क े साथ शोभायमान है।
  • 30. • मगण ुर चक्र क े ध्यान का फि- अशग्न क े ध्यान बीज मंत्र 'रं' का ध्यान करने से मानशसक कायव्यूह का ज्ञान हो जाता है और पालन तथा संहार की शक्तक्त आती है। योगी तेजस्वी हो जाता है। शरीर काक्तन्तयुक्त हो जाता है। • 4. अनाहत चक्र- चौथे चि का नाम अनाहत चि है। हमारे शरीर में क्तस्थत मेरूदण्ड में हृदय क े पीछे अनाहत चि है। अनाहत यशद शाक्तब्दक अथा शलया जाए तो अनाहत का अथा होता है 'चोट नहीं करना' इस अनाहत चि का स्थान हृदय प्रदेश है।
  • 31. • अनाहत चि आक ृ शत परम उज्जवल नव पुक्तष्पत कमलाकार धूसर रंग युक्त है। इस चि में बारह दल होते है, बारह दलों पर बारह माशत्रका वणा है। क ं , खं, गं, घं, िं, चं, छं , जं, झं, नं, टं, ठं , इन द्वादस वायुतत्व क े गुण धमा वृशत्तयााँ है- आशा, शचन्ता, चेष्टा, मतता, दम्भ, शवफलता, शववेक, अंहकार, कपटता, शवतक ा और अनुताप, वायुतत्व का बीज “यं' है और इस तत्वबीज की गशत शतयाक गशत है। वायुतत्व का गुण स्पशा है। इसको शास्त् में शदव्य लोक भी कहा गया है। इसका अशधपशत देवता रुद्र है जो अपनी शत्रनेत्रा चतुभुाजा शक्तक्त काशकनी क े साथ शवराजमान है। षटकोणयुक्त इस चि का यि है और उसका रंग ध्रूमवणा है।
  • 32. • अनाहत चक्र क े ध्यान का फि- वायुतत्व क े बीज “यं' का मानशसक जाप करते हुए इस चि का ध्यान करने से वाक ् अशधक्तिय, अथाात कशवत्व शक्तक्त प्राि हो जाती है। ध्यान अशधक करने से 10 प्रकार क े नाद तथा श्रुशतगोचर होने लगते है। • 5. गवशुक्ति चक्र- पांचवा चि शवशुक्ति चि हमारे शरीर में क्तस्थत मेरूदण्ड में कण्ठ क े पीछे क्तस्थत है। इसका शाक्तब्दक अथा 'शव' अथाात शवशेष, शजसकी तुलना नहीं हो सकती है और शुक्ति का अथा शुि करने से शलया जाता है। शवशुक्ति चि शरीर में शवषाक्त तत्वों को फ ै लने से रोकता है।
  • 33. • इसका प्रभाव स्वर यंत्र, गले, टॉशसल, आशद ग्रंशथयों पर पड़ता है। इसकी आक ृ शत नील आभा युक्त क्तखले हुए कमल क े समान है। इसमें 16 दल होते है। सोहल दलों पर सोलह माशत्रका वणा हैं- अं, आं, इं, ई, उं, ऊ ं , ऋ ं , ऋ, लृं, एं , ओं, औं, आं, अः। • इन सोलह दलों पर आकाश तत्व की वृशत्तयों है जो सोलह है- शनषाद, ऋषभ, गान्धार, षिश, मध्यम, धौवत, पंचम ये सात स्वर रूप में है और अं, हं, फट, वषट, स्वधा, स्वाहा स्वर रूप में है और अमृत यह शबना स्वर क े हैं। आकाश तत्व का 'हं' बीज है। इस तत्व की गशत गम्भीर होती है। आकाश तत्व का गुण 'शब्द' होता है।
  • 34. • जो ऊपर की ओर गशत करने वाला है। आकाश तत्वबीज का वाहन हस्ती शजसक े ऊपर प्रकाश देवता है। इसक े अशधपशत देवता पंच मुख वाले सदाशशव हैं जो अपनी शक्तक्त चतुाभुज, 'शाशकनी' क े साथ शवराजमान है। इसका यि पूणाचन्द्रमा क े वृत्ताकार आकाश मण्डल क े समान है। • गवशुक्ति चक्र क े ध्यान का फि- आकाश तत्व का बीज 'हं' का जाप करते हुए शवशुक्ति चि का ध्यान करना चाशहए। शवशुक्ति चि में ध्यान करने से भूत, वतामान और भशवष् इन तीनों कालों का ज्ञान हो जाता है। साधक ज्ञानवान, तेजस्वी, शांत शचत्त और दीघाजीवी हो जाता है।
  • 35. • 6. आज्ञा चक्र- छटा चि आज्ञाचि कहलाता है। आज्ञा चि हमारे शरीर में मेरूदण्ड क े उपरी छोर पर भूमध्य क े पीछे क्तस्थत होता है। इसका सम्बन्ध शपशनयल ग्रक्तन् से होता है। इसी को तीसरा नेत्र भी कहा जाता है इस चि की आक ृ शत दो दलों वाला कमल क े समान होती है। दोनों दलों पर माशत्रका वणा हं' और “क्ष' है। इनकी वृशत्तयााँ भी दो ही है प्रवृशत्त और अहंमन्यता। इसका तत्व महत तत्व है। इसक े तत्वबीज ऊ ाँ है और तत्व बीज की गशत नाद है। तत्वबीज क े वाहन नाद पर शलंग देवता शवराजमान हैं। इसका अशधपशत देवता ज्ञान प्रदाता शशव है जो शक चतुभुाजा षड़ानना (छ: मुखवली) 'हाशकनी' शक्तक्त क े साथ शोभायमान है। इसका यि शलंगाकार क े समान वतुाल है।
  • 36. • आज्ञा चक्र क े ध्यान का फि- इस चि का ध्यान, ऊ ाँ बीज मंत्र का मानशसक जप करने से प्रशतभ चक्षु या शदव्य नेत्र खुल जाते है योगी को शदव्य-दृशष्ट शमलती है। शदव्य योग दृशष्ट प्राि योगी को शवश्व-ब्रहमाण्ड में हर तत्व का ज्ञान हो जाता है। उससे कोई भी तत्व अज्ञात नहीं रहता है। 7. सहस्रार चक्र- सबसे ऊपर और सबक े अन्त में यह सहस्रार चि, सहस्त् दल कमल क े रूप में शवद्यमान है। यह सहस्रार चि क े सूक्ष्म स्वरूप का स्थूल रूप मात्र है। इसका स्थान, जो सभी शक्तक्तयों का क े न्द्र स्थान है ब्रह्मताल या ब्रहमरंध क े ऊपर मक्तस्तष्क में है।
  • 37. • शवशभन्न प्रकार क े रंगों क े प्रकाश से युक्त हजार दलों वाले कमल क े समान इसकी आक ृ शत है। वह कमल एक छत्री क े समान अधा: मुख शवकशसत है। • इन सहस्र दलों पर मशत्रका समूह अं से लेकर 'क्ष' शवद्यमान है। शजसमें समस्त स्वर और व्यंजन वणा समूह शवद्यमान है। इसका तत्व तत्वातीत है। • शबंदु तत्वबीज का वाहन है तथा अशधपशत देवता परब्रह्म (शशव) हैं। जो अपनी महाशक्तक्त क े साथ शोभा पा रहे हैं। इसका लोक अक्तन्तम सत्य लोक है। इससे ऊपर कोई लोक नहीं है।
  • 38. • इस सहस्रार चि का यि शुभ आभा युक्त पूणा चन्द्रमा क े समान वतुाल है। वही पर इस यि में क ु ण्डशलनी शक्तक्त उपक्तस्थत होकर सदैव परमात्मा क े साथ युग्म रूप में पर महाशक्तक्त से शमलन होता है। यहां पर शशव और शक्तक्त का शमलन होता है। क ु ण्डशलनी शक्तक्त परम शशव क े साथ लीन होने क े साथ ही शवशभन्न चिों की शक्तक्तयों अहंकार, शचत्त, बुक्ति तथा मन क े साथ सम्पूणा रूप से परमात्मा में शवलीन हो जाती है तत्पिात साधक को इस जगत का भी भान नहीं रहता और उसे असम्प्रज्ञात समाशध की प्राक्ति हो जाती है। इसका फल अमरत्व या अमरपद की प्राक्ति होती है।