1. * योग दर्शन * योगविद्या का निरूपण करनेवाले प्रयोगात्मक शास्त्र का उपदेश * पतञ्जलि मुनि
2. ओ३म् योग दर्शन * विद्याभास्कर - वेदरत्न आचार्य उदयवीर शास्त्री द्वारा रचित पातञ्जल - योगदर्शनम् पर आधारित प्रस्तुतीकरण * प्रस्तुतकर्ता - सञ्जय कुमार
3. पतञ्जलि मुनि का काल पातञ्जल चतुष्पादात्मक योगदर्शन के उपलब्ध व्याख्या ग्रन्थों में सर्वाधिक प्राचीन प्रसिद्ध व्यासभाष्य है। * महाभारत तथा ब्रह्मसूत्रों ( वेदांतदर्शन ) के रचयिता कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास ही योगसूत्रों के भाष्यकार व्यास हैं। * वेदव्यास का प्रादुर्भावकाल अब से लगभग पाँच सहस्र वर्ष से भी अधिक पूर्व है। * योगसूत्रकार पतञ्जलि मुनि महाभारतयुद्धकालिक वेदव्यास से पूर्ववर्ती आचार्य हैं।
18. प्रस्तुत सूत्र में योग शब्द का अर्थ ' समाधि ' है। योग की यह परम्परा आदि सर्ग से चालू रही है।
19. योग की इस पद्धति का उपदेश पतञ्जलि मुनि की अपनी कल्पना नहीं , प्रत्युत यह पद्धति अतिप्राचीन और वेदमूलक है।
20. कालांतर में लोगों के आलस्य प्रमाद आदि के कारण समय - समय पर इस विद्या के नष्ट होने अथवा इसमें शैथिल्य आने का उल्लेख भारतीय साहित्य में मिलता है।
21. ऐसे ही किसी प्राचीन काल में , लोकानुग्रह की अभिलाषा से पतञ्जलि मुनि ने , योग पद्धति का ' अनुशासन ' अर्थात् पुनः उद्धार कर उपदेश किया ; और , उस सबको व्यवस्थित कर के सूत्रबद्ध रूप में प्रस्तुत किया ।
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23. अर्थ - ज्ञान के निश्चय कराने में साधन होने के अतिरिक्त , बुद्धितत्त्व का - योगप्रक्रिया के अनुसार - एक विशिष्ट कार्य है - अर्थतत्त्व का चिंतन।
25. साक्षात्कार के लिये प्रणव [ ओ३म् ] जप आदि के द्वारा ईश्वर का चिंतन अर्थात् निरंतर स्मरण करने का उपपादन इस दर्शन का प्रधान उद्देश्य है , और यह चिंतन बुद्धि द्वारा होता है।
26. इस दर्शन में बुद्धितत्त्व को चित्त पद से अभिव्यक्त किया गया है। यह चिंतन का प्रधान साधन है।
29. सांख्य - योग की मान्यताओं के अनुसार समस्त जड़ जगत् तीन गुणों - सत्त्व , रजस् , तमस् - का परिणाम है। दृश्य - अदृश्य विश्व के मूल उपादान कारण ये ही तीन गुण हैं , चित्त भी इनका परिणाम है। इनमें सत्त्व - प्रकाश स्वभाव , रजस् - प्रवृत्ति स्वभाव तथा तमस् - नियमन [ रोकना ] स्वभाव रहता है।
30. वस्तु में जब जिस गुण का उद्रेक [ प्राधान्य ] रहता है , तब वही स्वभाव प्रकट में आता है। चित्त की रचना सत्त्वगुण - प्रधान है , इसकारण रजस् - तमस् के उद्रेक में भी चित्त का प्रकाश स्वभाव निरन्तर बना रहता है।
31. इन्हीं तीन गुणों के यथायथ प्रधान व अप्रधान रहने से चित्त की विभिन्न अवस्थाएं व वृत्तियाँ प्रकट में आती हैं।
32. चित्त सदा ही किसी न किसी वृत्ति से अभिभूत रहता है। वृत्ति व्यापार को कहते हैं। चक्षु आदि इन्द्रियों का अपने विषय - रूप आदि के साथ सम्बन्ध होना व्यापार है।
33. बाह्यकरण चक्षु आदि का जो व्यापार है , वही व्यापार अंतःकरण चित्त का रहता है।
34. चित्त की वृत्ति अर्थात् व्यापार ( मुख्य कार्य ) का स्वरूप है - ' बाह्य विषयों को बाह्य इन्द्रियों से लेकर द्रष्टा ( आत्मा ) तक पहुँचाना ' ।
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36. इसका तात्पर्य किसी प्रतिबन्ध को सामने खड़ा करना नहीं है ; प्रत्युत विषयों का चिंतन एवं उनमें आसक्तिपूर्वक प्रवृत्ति का न होना ही निरोध का स्वरूप है।
37. चित्त की वृत्तियों का निरोध योग का स्वरूप है। ऐसी अवस्था जिन उपायों से प्राप्त होती है , उनका निरूपण करना इस शास्त्र का मुख्य लक्ष्य है।
38. अपनी साधारण दशा में बाह्य विषयों के ग्रहण के लिये मानव - चित्त बाह्य करणों का दास रहता है।
39. किंतु जब मानव योगविधियों द्वारा चित्त को निरुद्ध कर समाधि की अवस्था को प्राप्त कर लेता है ; तब वह बाह्य विषयों के ज्ञान के लिये इन्द्रियों से बँधा नहीं रहता।
40. उस दशा में वह बाह्य इन्द्रियों के सहयोग के विना केवल चित्त - अंतःकरण द्वारा बाह्य विषयों के ग्रहण में समर्थ होता है।
41. चित्त - वृत्ति निरोध के लिये हमे सर्वप्रथम चित्त की विभिन्न अवस्थाओं का स्वरूप समझना चाहिये।
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43. मूढ - रजस् का वेग कम होकर तमस् का प्राधान्य होता है । वह मोह - आवरण को उभार देता है। अज्ञान , अधर्म , अनैश्वर्य का साधन बनता है। निद्रा , आलस्य , अधार्मिक कार्य इसी के परिणाम हैं।
48. चित्त बाह्य विषयों की ओर प्रवृत्त न होकर एकमात्र आध्यात्म चिंतन में निरत रहता है।
49. पूर्वानुभूत विषयों के संस्कार , बीज रूप में , अवश्य बने रहते हैं , जो आकस्मिक रूप से उद्बुद्ध हो कर एकाग्र अवस्था में यदा - कदा विघ्न अवश्य उपस्थित करते रहते हैं।
50. योगी निश्चल व एकाग्र होकर , स्थूल , सूक्ष्म , सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम ( अतीन्द्रिय ) तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को साक्षात् करने में समर्थ होता है।
51. योगी प्रकृति - पुरुष ( आत्मा और चित्त ) के भेद का साक्षात्कार कर लेता है। इसी का नाम विवेकख्याति है।
52. इस अवस्था को योग में संप्रज्ञात योग अथवा सम्प्रज्ञात समाधि या सबीज समाधि भी कहते हैं।
53. त्रिगुण ( सत् , रजस् , तमस् ) का परिणाम होने से चित्त की एकाग्र अवस्था एक अस्थायी अवस्था है ।
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55. संस्कारों के विद्यमान रहते हुए भी इस अवस्था में चित्त उनको उद्बुद्ध करने में अक्षम रहता है।
56. इस अवस्था में कर्माशय दग्ध होजाते हैं - जिससे उनका बीज भाव अंतर्हित हो जाता है।
57. इसी कारण इस अवस्था को निर्बीज समाधि कहा जाता है।
58. कर्माशय सुख - दुःख आदि के वे बीज ( संस्कार - समूह ) हैं , जो जन्म , आयु और भोग के रूप में प्राणी को प्राप्त होते रहते हैं।
59. आत्मबोध के अतिरिक्त अन्य किसी विषय का किसी प्रकार का ज्ञान न होने से योगियों के सम्प्रदाय में इस अवस्था का नाम असम्प्रज्ञात समाधि है।
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61. व्युत्थान दशा में आत्मा द्वारा विषयों का अनुभव आत्मा के प्रकृति - सम्पर्क होने पर होता है।
62. इस सम्पर्क का मुख्य एवं अंतिम ( निकटतम ) उपकरण बुद्धि अथवा चित्त है ; वह आत्मा के असम्प्रज्ञात समाधि अवस्था प्राप्त होने पर निष्क्रिय हो जाता है।
63. फलतः निरुद्ध अवस्था में , जब चित्त निष्क्रिय हो चुका होता है , आत्मा केवल परमात्मा के आनन्दमय स्वरूप का अनुभव करता है। तब उसे द्रष्टा के स्वरूप में अवस्थित कहा जाता है।
64. आत्मा इस अवस्था को प्राप्त करने पर अन्य समस्त विषयों से अछूता हो जाता है ; और , समाधिलब्ध शक्ति द्वारा परमात्मा के आनन्दरूप में निमग्न हो जाता है।
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66. बाह्य एवं अंतःकरण द्वारा जो विषय आत्मा के लिये प्रस्तुत किया जाता है ; आत्मा उसका ग्रहण करता है।
67. उन बाह्य विषयों का बोध आत्मा को होता रहता है। यह बोध आत्मा की व्युत्थान दशा कही जाती है।
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70. सूत्रकार ने आगे [2/ 3] अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच क्लेश बताये हैं।
71. अविद्या आदि क्लेश जिन वृत्तियों के हेतु हैं , वे वृत्तियाँ क्लिष्ट कही जाती हैं ; और , दुःख उत्पन्न करती हैं।
72. जिन वृत्तियों का हेतु अविद्या आदि क्लेश नही हैं , प्रत्युत जो इन्द्रिय - वृत्तियाँ आध्यात्मिक भावनाओं से प्रेरणा पाकर उभरती हैं , वे अक्लिष्ट कही जाती हैं ; और , दुःख अदि को उत्पन्न करने के स्थान पर वे उनका नाश करने में सहयोगी होती हैं।
73. अक्लिष्ट वृत्तियाँ अभ्यासी योगी को विवेक - ख्याति की ओर अग्रसर करती हैं ; एवं , उसे लक्ष्य तक पहुँचा देती हैं।
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75. ज्ञानेन्द्रिय का उसके सामने स्थित विषय के साथ सम्बन्ध होने पर वह विषय अपने आकार - प्रकार सहित इन्द्रिय में प्रतिबिम्बित हो जाता है।
76. इन्द्रिय के साथ मन का , मन के साथ अहंकार एवं अहंकार के साथ बुद्धि का सम्बन्ध होने से वह विषय - प्रतिबिम्ब बुद्धि में प्रतिफलित होता है।
77. बुद्धि का सीधा सम्बन्ध आत्मा के साथ होने से आत्मा को उस विषय का बोध होता है।
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81. मिथ्याज्ञान और यथार्थज्ञान दोनों का साधन एक होता है ; किंतु , साधन , विषय एवं संस्कारगत दोषों के कारण वस्तु तत्त्व यथार्थ से भिन्न रूप में प्रतीत होता है।
82. संशयात्मक चित्तवृत्ति को विपर्यय के अंतर्गत समझना चाहिये क्योंकि इसमें वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं होता।
85. इस विपर्यय अर्थात् मिथ्याज्ञान का नाश तत्त्वज्ञान के उदय होजाने पर होता है।
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89. जैसे जाग्रत और स्वप्न अवस्था में ऐन्द्रिक ज्ञान होते रहते हैं ; ऐसा कोई ज्ञान सुषुप्ति अवस्था में नहीं होता ।
90. सुषुप्ति अथवा गहरी नींद की अवस्था में - जिसमें ज्ञान का अभाव मालुम पड़ता है , निद्रा वर्ग की चित्त - वृत्ति है।
91. सुषुप्ति अवस्था का समाधि एवं मोक्ष अवस्था के समान दर्जा दिया गया है ; फिर भी इस वृत्ति का निरोध इस कारण आवश्यक है , कि यह तमोगुण प्रधान मानीजाती है ; जब कि , समाधि सत्त्वप्रधान है।
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93. विषय की अनुभूति के समान संस्कार होते हैं। अनुभूति के बाद अनुभवजन्य संस्कार चित्त में बस जाते हैं।
94. संस्कारों के सदृश स्मृति हुआ करती है। स्मृति का विषय सदा वही होता है , जो अनुभव का विषय रहा हो।
95. कालान्त र में , अनुकूल निमित्त उपस्थित होने पर , अनुभूत संस्कार उभर आते हैं , जो उस विषय को याद करा देते हैं। यह स्मृतिवृत्ति है।
96. बिना अनुभव किये हुए विषय का स्मरण नहीं होता। किंतु , कभी - कभी , संस्कार के न रहने से , अनुभव किये हुए विषय का भी स्मरण नहीं हो पाता।
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98. त्रिगुणात्मक प्रकृति के सम्पर्क में आत्मा राग , द्वेष , अविद्या आदि क्लेशों से त्रस्त रहता है। उससे छुटकारा पाने के लिये समस्त वृत्तियाँ त्याज्य हैं।
99. सुखात्मक वृत्तियाँ सुख - साधनों में राग उत्पन्न करती हैं ; उसमें बाधा उत्पन्न करनेवालों के प्रति द्वेष की भावना जागृत होती है।
100. राग - द्वेष क्लेश के मूल हैं। ये सब मोह अर्थात् अविद्या के कारण उभरते हैं। अतः इन सब क्लेशमूलों की वृत्तियों का निरोध ही , आत्मा को क्लेशों से दूर रखने में उपयोगी होता है।
101. अध्यात्म की ओर प्रवृत्त होना भी चित्तवृत्तियों का क्षेत्र है।
102. ये चित्तवृत्तियाँ शुद्ध सात्विक होने से राग - द्वेष आदि को उत्पन्न न कर योग अर्थात् समाधि दशा की प्राप्ति के लिये व्यक्ति को अग्रसर करती हैं।
103. समाधि का विरोधी न होने से इन वृत्तियों का निरोध किसी रूप में अपेक्षित नहीं।
104. समाधि की अंतिम दशा में इन वृत्तियों का प्रवृत्त होना समाप्त हो जाता है। तब योगी द्रष्टा स्वरूप के साक्षात्कार के साथ ब्रह्मानन्द का अनुभव करता है।
105. समाधि में प्रकृति - सम्पर्क नितांत टूटजाता है - आत्मा के साथ चित्त या चित्तवृत्तियों के सम्बन्ध का कोई अवसर नहीं रहता।
106.
107. चित्त एक ऐसी नदी के समान है जिसमें अनादि काल से वृत्तियों का अनवरत प्रवाह चालू है।
108. इस प्रवाह का कारण है - व्यक्ति के पूर्व जन्मों में सञ्चित प्रबल दुष्कृत एवं सुकृत कर्म।
109. वैराग्य की भावना इस जीवन में विषयों में आसक्ति समाप्त कर वृत्तियों को उत्पन्न होने से ही रोक देती है।
110. योगानुष्ठान का अभ्यास चित्त में स्थिरता उत्पन्न कर वृत्तियों के प्रवाह को अध्यात्म मार्ग की ओर मोड़ देता है।
133. वितर्कानुगत - निरोध के इस स्तर में चिंतन करनेवाला प्रमाता - आत्मा , चिंतन का विषय प्रमेय - स्थूलभूत और सूक्ष्मभूत , चिंतन का साधन प्रमाण - बाह्य एवं आंतर करण - चारों आधार भासते हैं।
134. विचारानुगत - चिंतनधारा में से स्थूल प्रमेय और प्रमाण - बाह्य इन्द्रिय निकल जाते हैं ; सूक्ष्म प्रमेय में चिंतन स्थिर होने लगता है। प्रमाता , सूक्ष्म प्रमेय - तन्मात्र , प्रमाण - अंतःकरण रह जाते हैं।
135. आनन्दानुगत - चिंतन के इस स्तर में स्थूल - सूक्ष्म प्रमेय और उनके ग्रहण साधन बाह्य - आंतर करण कोई नहीं होते ; केवल सत्त्वप्रधान बुद्धि और आत्मा आलम्बन रहते हैं।
136. अस्मितानुगत - केवल आत्मा सतोगुणी शुद्ध चित्त से शुद्ध - बुद्ध आत्मरूप का , ' अस्मि '- इस अनुभूति के साथ , साक्षात्कार करता है।
137.
138. विषयों की उपस्थिति में चित्त जब किसी प्रकार उनकी ओर आकृष्ट नहीं होता , यही चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध है।
139. विषयों की ओर चित्त का व्यापार यद्यपि पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है ; पर उनके संस्कार चित्त में अभी बने रहते हैं। यही असम्प्रज्ञात समाधि का स्वरूप है।
140. इस समाधि में कौन - से संस्कार बने रहते हैं ? यह जिज्ञासा सामने आती है । दोनों समाधिदशा में चार परिणामों का उल्लेख मिलता है - व्युत्थान , समाधि का प्रारम्भ , एकाग्रता , निरोध ।
141. प्राचीन अनुभवी आचार्यों ने चित्त की जिन पाँच भूमियों ( स्तरों ) का वर्णन किया है - क्षिप्त , मूढ , विक्षिप्त , एकाग्र और निरुद्ध ; इनमें पहली दो भूमि [ क्षिप्त और मूढ ] चित्त का व्युत्थान परिणाम है । विक्षिप्त भूमि में रजस् - तमस् को थोड़ा पीछे धकेल दिया जाता है , कुछ सत्त्व का उद्रेक होता है : यह चित्त का दूसरा परिणाम है , जिसमें समाधि का प्रारम्भ होता है । चित्त की एकाग्रता परिणाम होने पर आनन्दनुगत सम्प्रज्ञात समाधि का स्तर , और निरोध परिणाम में चौथा स्तर अस्मितानुगत मिलता है ।
142.
143.
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145. भले ही योगाभ्यास के प्रारम्भ में अभ्यास के लिये उनके आलम्बन इन्द्रिय आदि तत्त्व रहें ; पर उनका साक्षात्कार होने पर वे उतने में ही संतुष्ट नहीं होजाते।
146. वे प्रसन्नता , निष्ठा और उत्साह से , पूर्वार्जित योग - सम्पत्ति को स्मरण रखते हुए असम्प्रज्ञात समाधि के स्तर तक पहुँचते हैं।
147. फिर उसकी स्थिरता के लिये प्रयत्न करते हुए परवैराग्य की उत्कृष्ट कोटि को प्राप्त कर ऋतम्भरा प्रज्ञा के स्तर को पालेते हैं।
159. समाधिप्राप्ति के लिये सम्वेग के (3 वैराग्य X 3 अभ्यास =9) नौ स्तरों में से योगाभ्यासी किसी एक स्तर पर प्रयत्न करता है और न्यून वा अधिक काल में सिद्धि को प्राप्त करता है।
160. यह कार्य अत्यंत कठिन , विपुल बाधाओं से भरा तथा जन्म - जन्मांतरों के प्रयत्न से साध्य होता है।
163. ईश्वर का लक्षण आचार्य ने स्वयं अगले सूत्र में बताया है।
164. प्रणिधान का तात्पर्य है - अनन्य चित्त होकर पूर्णभक्तिभाव से आत्मसमर्पणपूर्वक उपासना करना।
165. वस्तुतः उपासक जब सर्वात्मना संसार से विरक्त होकर समस्त भावनाओं को भगवान में निहित कर देता है , तब व्युत्थानभूमि की चित्तवृत्तियों के उद्भव की सम्भावना नहीं रहती।
166. इसप्रकार उपासना करने से आराधित हुआ प्रभु , प्रसाद रूप में , भक्त उपासक के अभीष्ट को संकल्प मात्र से सिद्ध कर देता है। ईश्वर को अन्य किसी बाह्य साधन की अपेक्षा नहीं होती।
169. वैसा एक साधारण चेतन प्रत्येक मानव , पशु - पक्षी , कृमि , कीट , पतंग , पेड़ - पौधों आदि के देहों में एक - दूसरे से सर्वथा पृथक् - पृथक् विद्यमान रहता है ; यह साधारण चेतनतत्त्व ( पुरुष ) हैं। इन्हें जीवात्मा कहा जाता है।
170. इनसे अतिरिक्त एक विशेष ( असाधारण ) चेतन पुरुष परमात्मा है , जो कि साधारण चेतन के विपरीत , क्लेश ( सुख - दुःख ), पाप - पुण्यरूप कर्म , विपाक ( कर्मफल ) और आशय ( वासना ) से अछूता है।
171. वह पुरुषविशेष ऐश्वर्ययुक्त होने से ईश्वर कहा जाता है। वह ऐश्वर्य उसके सर्वशक्तिमान और सर्वांतर्यामी होने में निहित है।
172. वह चेतन तत्त्व समस्त विश्व का नियंत्रण करता है ; संसार के उत्पत्ति - स्थिति - प्रलय उसके नियंत्रण का स्वरूप है।
173.
174. अल्पज्ञ , अल्पशक्ति जीवात्मा के लिये ऐसी स्थिति का प्राप्त कर सकना सर्वथा असम्भव है।
175. अतः सर्वज्ञ , सर्वनियन्ता ईश्वर का स्वीकार करना पूर्णरूप से प्रामाणिक है।
176. जीवात्म - चेतन की अल्पज्ञता का प्रत्यक्ष से भान होता है।
177. मुक्त अवस्था में भी वह पूर्णज्ञानी नहीं हो पाता ; सर्गरचना आदि के ज्ञान से वह तब भी वंचित रहता है।
178. इसलिये सर्वज्ञाता - पूर्णज्ञाता अथवा ज्ञान की पराकाष्ठा का आश्रय ईश्वर को माना जाता है।
179.
180. देह के अनित्य होने से ब्रह्मा , कपिल आदि पहले गुरु काल से सीमित रहे।
181. ईश्वर काल से कभी सीमित नहीं होता , क्यों कि उपदेश के लिये उसे शरीर धारण करने की आवश्यकता नहीं होती।
182. वह अशरीर रहता हुआ सर्वशक्तिमत्ता से आदि ऋषियों के आत्मा में वेदज्ञान को अभिव्यक्त ( प्रकाशित ) कर देता है। काल की सीमा उसपर कोई प्रभाव नहीं रखती।
183. इसप्रकार वह पूर्ववर्ती गुरुओं का भी गुरु मानाजाता है। उसका वह उपदेश सार्वकालिक होता है।
199. प्रणव के जप का तात्पर्य है - ' ओ३म् ' का निरंतर मानसिक उच्चारण ; जिसमें वाक् इन्द्रिय का व्यापार नितांत नहीं होना चाहिये।
200. प्रणव की मानसिक कल्पना के साथ प्रणव के अर्थ का निरंतर चिंतन करते रहना। प्रणव का वाच्य अर्थ परमात्मा है , उसके स्वरूप को अपने ध्यान से न हटने देना -- उसका चिंतन है।
201. यह स्थिति प्राप्त करना यद्यपि अति कठिन है , पर निरंतर तथा दीर्घ काल के अभ्यास से इसका आभास होने लगता है।
202. तब वह स्थिति अभ्यासी को निरंतर अपनी ओर आकृष्ट करती रहती है।
203. जप के आधार पर चित्त को परमात्मस्वरूप में एकाग्र करना अपेक्षित है।
204.
205. उपासक कल्पना करे -- मेरे सब ओर प्रकाश ही प्रकाश फैला हुआ है , उस दिव्य प्रकाश में सब कुछ अंतर्हित हो गया है ; सर्वत्र विस्तृत प्रकाश के अतिरिक्त अन्य कोई कल्पना चित्त में न उभरने दे। वह प्रकाश अनंत अनुपम आनन्द से परिपूर्ण है , ऐसी भावना जागृत रखे।
206. उपासक अपने आपको , समस्त विश्व में परिपूर्ण , उस दिव्य प्रकाश व आनन्द के मध्य बैठा हुआ कल्पना करे - कि मेरे चारों ओर ऊपर - नीचे तेजोमय आनन्द ही आनन्द भरा हुआ है।
207. प्रणवजप के साथ इस परमात्मस्वरूप चिंतन की दृढ़ता व नैरंतर्य चित्त की एकाग्रता का चिह्न है।
208.
209. प्रथम अभ्यासी शारीरिक दृष्टि से शुद्ध पवित्र होकर अभ्यस्त योगासन में बैठ पाँच - छह प्राणायाम ( रेचक - पूरक - कुम्भक ) करे।
210.
211. श्वास लेते समय उपासक को कल्पना करनी चाहिये कि श्वास के साथ - साथ नाभिप्रदेश से उठकर ' ओ३ ' की ध्वनि मस्तिष्क तक पहुँच रही है। यह ' ओ ' की प्लुत ( अति दीर्घ ) ध्वनि का स्वरूप है।
212. ' ओ३ ' जब मस्तिष्क से टकराता है , तब श्वासगति पूरी होकर वायु प्रश्वास के रूप में नासारंघ्र से बाहर निकलने लगता है। उस काल में उपासक को कल्पना करनी चाहिये कि यह ' ओ३म् ' का दूसरा भाग ' म् ' उच्चरित होरहा है ; और , वायु के साथ बाहर को जा रहा है।
213.
214.
215. इसप्रकार ईश्वर - प्रणिधान से निर्विघ्न , निर्बाध आत्मसाक्षात्कार हो जाता है ।
216.
217. ये नौ अंतराय योग के विभिन्न स्तरों पर् योगानुष्ठाता के सम्मुख आते रहते हैं , जो चित्त को विक्षिप्त कर योगमार्ग से भ्रष्ट कर देते हैं। ये चित्त के विक्षेप , योग के मल , अंतराय या प्रतिपक्षी कहे जाते हैं।
218. योगी को सतर्कता से इनका प्रतिरोध - इनके वश में न आने का प्रयास - करते रहना चाहिये।
219.
220. स्त्यान - इच्छा एवं लाभ होने की सम्भावना होने पर भी उस ओर से अकर्मण्य बने रहना , उसमें रुचि न लेना।
221. संशय - योगानुष्ठान व उसके फल के विषय में संदिग्ध रहना , योग के लिये अनुष्ठान करें या न करें ? कुछ फल मिलेगा या नहीं ?
222. प्रमाद - लापरवाही , जानते हुए भी योगसाधनों का अनुष्ठान न करना।
223. आलस्य - अनुष्ठान में रुचि व सामर्थ्य होने पर भी देहादि की क्रिया द्वारा उसमें न लगना ; अथवा मनोयोगपूर्वक कर्तव्य में प्रवृत्त न होना।
224. अविरति - सांसारिक विषयों की ओर से विरक्ति न होना।
225. भ्रांतिदर्शन - योग - विषयक किसी भी प्रकार का मिथ्या ज्ञान।
227. अनवस्थितत्व - योग की सफलता के किसी स्तर को प्राप्त कर लेने पर चित्त का पूर्णरूप से अवस्थित न होना।
228.
229.
230. व्याधि आदि विक्षेपों और उनके सहचर दुःख , दौर्मनस्य आदि योगविरोधक परिस्थितियों को रोकने के लिये निरंतर , दीर्घकाल तक , श्रद्धापूर्वक ईश्वरप्रणिधान में संलग्न रहना सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
231. इसका अनुष्ठान करते रहने से विक्षेपों का प्रकोप साधक पर नहीं हो पाता। यदि कभी अचानक हो जाय तो वह साधक को बिना सताये स्वतः दूर होजाता है।
233. अपने को सर्वात्मना ईश्वरार्पण कर देने की भावना ही साधक को अपने योगानुष्ठान के प्रति दृढ़ , साहसी व उदात्त बना देती है , तब किसी प्रकार के विक्षेप साधक पर प्रभावी नहीं हो पाते।
234.
235. दुःखी जनों के प्रति सदा करुणा - दया , हार्दिक सहानुभूति का भाव रक्खे। दुःख निवारण के लिये उन्हें सन्मार्ग दिखाने का प्रयास करे।
236. पुण्यात्मा के प्रति साधक हर्ष का अनुभव करे। योग पुण्यमय है ; सन्मार्ग - सद्विचार का साथी मिलने पर हर्ष का होना स्वाभाविक है।
237. पापात्मा के प्रति साधक का उपेक्षा - भाव सर्वथा उपयुक्त है। ऐसे व्यक्तियों को सन्मार्ग पर लाने के प्रयास प्रायः विपरीत फल ला देते हैं , अतः उनके प्रति उपेक्षा - उदासीनता का भाव श्रेयस्कर होता है।
238. इसप्रकार ईर्ष्या , द्वेष , घृणा आदि से रहित निर्मल - चित्त वाला साधक सम्प्रज्ञात योग की स्थिति प्राप्त करने में शीघ्र सफल हो जाताहै।
239.
240. वायु को बाहर या भीतर वहीं रोकदेना ' विधारण ' है।
241. वायु को भीतर से बाहर फेंकना रेचक और बाहर से भीतर को फेंकना ( लेना ) पूरक कहलाता है।