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Gov. (Auto.) Ayurveda College And Hospital
nipaniya rewa (M.P.)
Department of rog nidaan and vikriti vigyaan
Guided by :-
Dr. S.M. Khuje
(MD , HOD)
Dr. Archana Singh
(MD , lecturer)
Submitted by:-
Pankaj Meena
Batch – 2019 (2nd year)
अग्नि दुष्टी
अनुक्रमग्निका
अग्नि दुष्टी
- अग्नि महत्त्व
- देहाग्नि
- पर्ाार्
- भेद
- अग्नि दुग्नष्ट क
े हेतु
- आहारज ग्ननदान
- ग्निहारज ग्ननदान
- अग्नि दुग्नष्ट क
े भेद ि लक्षि
- पाचग्नि क
े भेद
- तीक्षिाग्नि
- मंदाग्नि
- ग्निषमाग्नि
- समाग्नि
अग्नि दुग्नष्ट
अग्नि महत्त्व-
आचार्ा चरक क
े अनुसार देहाग्नि का महत्त्व बतार्ा गर्ा है।
∆ आर्ुिािोबलं स्वास्थ्यमुत्साहोपचर्ौ प्रभा।
ओजस्तेजोऽिर्ः प्रािाश्चोक्ता देहाग्निहेतुकाः।।
शान्तेऽिौ ग्निर्ते, र्ुक्ते ग्नचरं जीित्यनामर्ः ।।
रोगी स्याग्निक
ृ ते, मूलमग्निस्तस्माग्निरुच्यते ।।
(च.ग्नच.15/3-4)
देहाग्नि ग्ननम्न सभी कमों का मूल होने क
े कारि
प्रधान होती हैं
1. आर्ु – चेतना की अनुभूग्नत होना।
2. ििा – गौर आग्नद ग्निग्नभि ििों की प्राप्ति
3. बल - कार्ा करने की शप्तक्त ि व्यार्ाम करने की शप्तक्त
4. स्वास्थ्य - शारीररक दोषाग्नद तथा आत्मा, मन, इप्तिर्ों कर
पुष्ट रहना।
5. उत्साह - दुष्कर कार्ा करने में भी क
ु शलता आना।
6. उपचर्- देह का पुष्ट होना।
7. औजस्य - हृदर् में प्तथथत सिा धातुओं क
े सार रूपी ओज का
पोषि करती है।
8. तेज – आचार्ा चक्रपाग्नि ने तेज से देहोष्मा ि शुक्र दोनों का
ग्रहि ग्नकर्ा है। अत: देहाग्नि देहोष्मा का िधान करने क
े साथ
साथ शुक्र का भी िधान करती है।
9. अिर् - देहाग्नि शरीर में प्तथथत अन्य अग्निर्ों जैसे पञ्च
भूताग्नि ि सि धात्वाग्नि का पोषि करती है।
∆ देह्यग्निहेतुका इग्नतदेहपोशकप्रधानजाठराग्नि कारिका:।
(चक्रपाग्नि टीका)
~ इस प्रकार देहाग्नि सम्पूिा देह का पोषि करने में मुख्य कारि होती है।
पर्ाार्
िैश्वानर, िग्नह, धनन्जर्,
पािक, अनल,
ग्नशखािान्, हुतभुक
् ,
शुग्नचःिृत्तहा, ग्नहरण्यक
े श,
अहात, असुर, सिापाक आग्नद।
भेद
चक्रपाग्नि ने अग्नि क
े तेरह भेद बतार्े –
1. जाठराग्नि 1 प्रधानभूत
2. धतिाग्नि 7 ( रस, रक्त, मांस, मेद, अप्तथथ, मज्जा, शुक्र
की अग्नि)
3. भूताग्नि 5 (पृथ्वी, जल, िार्ु, अग्नि, आकाश की अग्नि )
• द्रिोत्तरो द्रिश्चाग्नप न मात्रागुरुररष्यते।
द्रिाढर्मग्नप शुष्क
ं तु सम्यिेगोपपद्यते।।
• ग्निशुष्कमन्त्रमभ्यस्तं न पाक
ं साधु गच्छग्नत ।
ग्नपण्डीक
ृ तमसंप्तििं ग्निदाहमुपगच्छग्नत ॥
अग्नि दुग्नष्ट क
े
हेतु
*स्त्रोतस्यििहे ग्नपत्तं पक्तौ िा र्स्य ग्नतष्ठग्नत।
ग्निदाग्नह भुक्तमन्यिा तस्याप्यिं ग्निदह्यते ॥
*शुष्क
ं ग्निरुद्धं ग्निष्टम्भ िग्निव्यापदमािहेत्।
अत्यम्यबुपानाग्निपमाशनािा संधारिात्स्वप्नविग्निपर्ार्ाच।
* कालेऽग्नप सात्म्यं लघु चाग्नप भुक्तमन्त्रं न पाक
ं भजते
नरस्य।
ईष्यांभर्क्रोधपररक्षतेन लुब्धेन रुग्दैन्यग्ननपीग्नितन।
प्रिेषर्ुक्तेन च सेव्यमानमन्त्रं न सम्यक्पररिाममेग्नत ।
(सु. सू. 46/502-507)
1. अग्नधक द्रि का सेिन
2. क
े िल द्रि पदाथा का अग्नधक सेिन
3. क
े िल ग्निशुष्क अि
4. ग्नपण्ड रूप में ग्नकर्ा हुआ भोजन
5. द्रिाग्नद से गीला नहीं ग्नकर्ा हुआ भोजन
6. शुष्क भोजन
आहारज ग्ननदान
7. ग्निरुद्ध भोजन
8. ग्निष्टम्भी भोजन
9. अग्नत जल पीने से
10. ग्निषमाशन करने से (मात्रा से अग्नधक र्ा अल्प
अथिा ग्ननग्नश्चत काल से पहले र्ा बाद में ग्नकर्े गर्े
आहार को ग्निषमारान कहते हैं)।
11. िेगधारि करने से
12. स्वप्नवि ग्निपर्ार् (सोने में अग्ननर्ग्नमतता से)
1. ईष्याा
2. भर्ः
3. क्रोध
4. लोभ
5. दीनता
6. िेष र्ुक्त
ग्निहारज
ग्ननदान
• उपरोक्त ग्ननदानों क
े सेिन से अििाहक
स्त्रोतस में तथा ग्नपत्त क
े थथान ग्रहिी में
ग्नपत्त दुग्नषत हो जाता है।
• उस दशा में खार्ा हुआ ग्निदाही अि
तथा अग्निदाही अि दोनो ग्निदग्ध हो जाते
हैं।
• ग्नजससे र्ोग्य समर् में ग्नकर्ा गर्ा लघु
भोजन भी ठीक तरह से नहीं पचता है।
*अग्निषु तु शारीरेषु चतुग्निाधो ग्निशेषो बलभेदेन भिग्नत।
तद्यथा - तीक्ष्िो, मन्दः, समो, ग्निषमश्चेग्नत ॥
(च. ग्नि. 6/12)
*स चतुग्निाधो भिग्नत- दोषानग्नभपि एकः ।
ग्निग्नक्रर्ामापिप्तस्त्रग्निधो भिग्नत - ग्निषमो िातेन, तीक्ष्ि
ग्नपत्तेन, मन्दः- श्लेष्मिा, चतुथाः समः सिासाम्याग्नदग्नत ।
(सु. सू. 35/28)
अग्नि दुग्नष्ट क
े भेद
ि लक्षि
∆ दोष भेद से पाचकाग्नि क
े चार भेद होते हैं।
1. तीक्ष्िाग्नि – ग्नपत्त दुग्नष्ट
2. मन्दाग्नि- कफदुग्नष्ट
3. ग्निषमाग्नि- िात दुग्नष्ट
4. समाग्नि – सम िात ग्नपत्त कफ
*ग्नपत्तलानां तु ग्नपत्ताग्नभभूते हान्यग्नधष्ठाने तीक्ष्िा भिन्त्यिर्ः तत्र
तीक्ष्िोऽग्निः सिाापचारसहः ।
(च. ग्नि. 6/12)
*र्ःप्रभूतमप्युपर्ुक्तमन्त्रमाशु पचग्नत स तीक्ष्िः ,
स एिाग्नभिद्धामानोऽत्यग्निररत्यभाष्यते।
स मुहुमुाहः प्रभूतमप्युपर्ुक्तमन्त्रमाशुतरं पचग्नत,
पाकान्ते च गलतािशोषदाहसंतापान जनर्ग्नत।
(सु. सू. 46/502 - 507 )
* तीक्ष्िोिग्नहः पचेच्छीघ्रमसम्यगग्नप भोजन।
(अ. ह. शा. 3/76)
तीक्ष्िाग्नि
∆ पुरुष ग्नपत्त प्रक
ृ ग्नत का हो तथा उसका अग्न्यग्नधष्ठान ग्नपत्त से अग्नभभूत हो तो
पुरुष की अग्नि तीक्ष्ि होती है।
∆ तीक्ष्िअग्नि सिाापचार सह होती है अथाात ग्नकसी भी प्रकार क
े अिपान को
अग्नधक मात्रा में ग्रहि करने पर भी र्ह उसे शीघ्र पचा लेता है।
∆ तीक्ष्िाग्नि भी तैक्ष्ण्य भेद से तीन प्रकार की होती है। तीक्ष्ि, तीक्ष्ितम,
तीक्ष्ितर।
∆ तीक्ष्ितर अग्नि भेद को आचार्ा सुश्रुत ने अत्यग्नि संज्ञा दी है।
∆ इसकी ग्निशेषता है ग्नक अब बार बार ि प्रभूत मात्रा में ग्नलर्ा जार्े तो भी र्ह
शीघ्रतर पचा देती है। इसे िल्हि ने अपनी टीका में भस्मक रोग कहा है।
∆ र्ह रोग पाचन क
े पश्चात् गल, तालु और ओष्ठ में शोथ, दाह ि संताप उत्पि
करता है।
अनुसार कफ का क्षर् एिं ग्नपत्त का प्रकोप होने से ग्नपत्त
क
े थथान पर जाकर अग्नि क
े समभािी होने क
े कारि उसे
।
रा खार्ा गर्ा अग्नधक मात्रा में भोजन भी शीघ्र पच जाता है।
ो र्ा तीन घण्टे बाद हो पुनः भोजन करने की इच्छा होने
न ग्नमलने पर तीव्र बैचेनी होती, र्ग्नद व्यप्तक्त ऐसी प्तथथग्नत में
ा है तो क
ु छ देर क
े ग्नलर्े रोगी को शाप्तन्त ग्नमल जाती है परन्तु
बैचेनी होने लग जाती है।
नहीं करता है तो तीक्ष्िाग्नि रक्ताग्नद धातुओं का पाक करना
ससे दुबालता, अनेक प्रकार क
े रोग ि मृत्यु तक हो सकती
मन्दाग्नि
*तग्निपरीत लक्षिस्तु मन्दः । (च. ग्नि. 6/12)
*र्स्त्वल्पमप्युपर्ुक्तमुदरग्नशरोगौरिकासश्वासप्रसेकच्छग्नदागा
त्रसदनाग्नन क
ृ त्वा महता कालेन पचग्नत स मंदः । (सु.सु.
35/29)
*मन्दस्तु सम्यगप्यन्त्रमुपर्ुक्तं ग्नचरात्पचेत्।
क
ृ त्वाऽऽस्यशोपाटोपान्त्रक
ु जनाध्मानगौरिम् ।।
(अ. ह. शा. 3/76)
∆ कफप्रधान पुरुषों में अग्नि का थथान कफ से आक्रान्त
होने क
े कारि उनक
े िारा ग्रहि ग्नकर्ा गर्ा अल्प
भोजन भी कग्नठनता से पचता है।
∆ अल्प भोजन करने पर भी उदर ि ग्नशर में भारीपन
तथा कास, श्वास प्रसेक िमन और अंगों में थकािट
आग्नद ग्निकार उत्पन होते हैं।
∆ आचार्ा िाग्भट ने बतार्ा ग्नक समुग्नचत मात्रा में खार्े
गर्े आहार को भी ग्रहि करने पर मुख सूख जाता है।
∆ पेट में गुिगुि शब्द का होना, आत्रक
ू जन, आध्मान
तथा भारीपन आग्नद लक्षिों क
े साथ-साथ भोजन देर से
पचता है।
∆ मनुष्य मन्दाग्नि से ग्रग्नसत होने पर गुरु ि ग्निग्ध
आग्नद गुि र्ुक्त द्रव्यों का सेिन करता है।
∆ र्ह द्रव्य धातुओं ि अन्य अिर्िों क
े पोषि में
काम नहीं आ पाते हैं जबग्नक उनका बडा अंश
अनुपर्ुक्त रह कर मल रूपी कफ का ग्ननमााि
करता है।
∆ कफ मात्रा से अग्नधक होने क
े कारि ग्निग्नभि
थथानों पर संग्नचत होकर ग्निग्नभि लक्षिों को उत्पि
करता है।
∆ उदर की श्लेष्मकला में कफ संग्नचत होकर उदर में गुरुता
उत्पि करता है।
∆ ग्नशर में संग्नचत होकर ग्नशर में गुरुता उत्पि करता है।
∆ प्राििहस्रोतसों में जाकर कास, श्वास की उत्पग्नत्त करता है।
∆ आमाशर् में जाकर कफज छग्नदा उत्पि करता है।
∆ सिा शरीर में आम क
े संश्रर् से गौरि ि ग्नशग्नथलता उत्पि होती
है।
∆ ग्नचग्नकत्सा - मंदाग्नि होने पर कटु , ग्नतक्त, कषार् दृव्यों का
प्रर्ोग और िमन कराना चाग्नहर्े।
• िातलानां तु िाताग्नभभूते ग्निषमाभिन्त्यिर्ः। (च.ग्नि. 6/12)
• समलक्षिग्निपरीतलक्षिस्तु ग्निषम इग्नत। (च. ग्नि. 6/12)
• र्ः कदाग्नचत् सम्यक
् पचग्नत,
कदाग्नचदाध्मान शूलोदाितााग्नतसारजप्रगौरिान्त्रक
ृ जनप्रिाहिाग्नन क
ृ त्वा सग्निषमः ।
( सु.सु. 35/20)
• ग्निषमो ऽसम्यगप्याश सम्यग्वाऽग्नप ग्नचरात्पचेत्।
(अ. ह. शा. 3/75)
ग्निषामाग्नि
∆ िात प्रधान व्यप्तक्त का अग्नि थथान िार्ु से
अग्नभभूत रहता है ग्नजससे उनकी अग्नि ग्निषम हो
जाती है।
∆ ग्निषमाग्नि क
े कारि व्यप्तक्त िारा ग्नकर्ा गर्ा
भोजन कभी कभी सम्यक रूप से पच जाता है,
परन्तु कभी कभी आध्मान, शूल, उदािता ,
अग्नतसार, उदर में भारीपन ि आंतों में क
ू जन ि
प्रिाहि आग्नद ग्निकार उत्पि हो जाते हैं।
िाग्भट्ट क
े अनुसार जो अग्नि अग्नधक मात्रा में
खार्े आहार को भी शीघ्र अथिा उग्नचत मात्रा
में खार्े गर्े आहार को देर से पचाती है िह
ग्निषम अग्नि है।
• िल्हि क
े अनुसार
ग्निषमािेिाार्ुर्ादा न ग्निग्नक्षपग्नत तदाऽग्निः सम्यक
् पचग्नत,
र्दा पुनररतशेतच भागशो ग्निग्नक्षिः स्यातदा सम्यङ्कः न पचग्नत।
(सु. सू. 35/24 िल्हि
टीका)
जब तक अग्नि अपने थथान पर है तब तक आहार का सम्यक
पाचन करती है। परन्तु जब िात अग्नि को अपने ही थथान से
बाहर ग्ननकाल देती है तब आहार का सम्यक पाचन नहीं होता
है ग्नजससे आध्मान आग्नद लक्षि व्यक्त होने लग जाते है।
∆ िात प्रक
ृ ग्नत क
े पुरुष में ग्निषमाग्नि क
े कारि क्षुधा
भी ग्निषम होती है। पररिामस्वरूप कभी उसकी
क्षुधा अग्नधक प्रदीि हो जाने क
े कारि कभी अग्नधक
मात्रा में भोजन कर लेता है और कभी क्षुधा कम
होने से अल्प मात्रा में भोजन ग्रहि करता है।
अग्नधक भोजन करने पर उसकी धातुएँ अग्नधक पुष्ट
होने लगती है ि भोजन अल्प लेनेपर धातुऐं क्षीि
होने लगती है ग्नजससे व्यप्तक्त कभी कभी पुष्ट ग्नदखाई
देता है ि कभी कभी अत्यन्त दुबाल ग्नदखाई देता है।
ग्निषमो धातुिैषम्यं करोग्नत ग्निषम पचन् ।
(च. ग्नच. 15/50)
ग्नचग्नकत्सा - ग्निषमाग्नि ग्निग्ध , अम्ल, लिि, रस
प्रधान ग्नक्रर्ाओं से प्रग्नतकार करना चाग्नहर्े।
तत्र, र्ो र्थाकालमुपर्ुक्तमन्त्रं सम्यक
् पचग्नत स समः समैदोष: ।
(सु. सु. 35/29)
तत्र समिातग्नपत्तश्लेष्मिां प्रक
ृ ग्नतथथानां समा भिन्त्यिर्ः ।
(च. ग्नि. 6/12)
र्ः पचेत्सम्यगेिानं भुक्तं सम्यक समस्त्वसौ।।
(अ. ह. शा. 3/75)
ग्नजस पुरुष में िात ग्नपत्त कफ र्ह दोष सम और प्रक
ृ ग्नतथथ रहते है
उनक
े कारि अग्नि भी सम रहती है ग्नजससे उपर्ुक्त समर् में खार्े
हुर्े अि को ठीक तरह से पचाती है।
समाग्नि
 समाग्नि की अिथथा में व्यप्तक्त को उपरोक्त िग्निात
कोई भी रोग नहीं होता है ग्नजससे सभी दोष,
धातु, उपधातु और मल समािथथा में रहते हैं।
ग्नजससे शरीर में आरोग्य, पुग्नष्ट, बल और आर्ु की
िृप्तद्ध होती है। व्यप्तक्त अग्नहत आहार ग्निहार नहीं
करें तो अग्नि सम अिथथा में ही रहती है परन्तु
अग्नहत आहार ग्निहार करने से अग्नि की ग्निग्नभि
ग्निक
ृ ग्नतर्ां हो जाती है
 ग्नचग्नकत्सा – समे पररक्षिं क
ु िीत (सु. सू. 35/31)
 समाग्नि की सिा प्रकार से रक्षा करनी चाग्नहर्े।
इंग्नद्रर्
प्रदोषज
ग्निकार
इप्तिर्ों की उत्पग्नत्त अंहकार से हुर्ी हैं तथा सत्व
ि रज दोनों क
े संर्ोग से एकादश इप्तिर्ों का
ग्ननमााि होता है।
1. कमेप्तिर् - िािी, हाथ, पैर, गुदा और उपथथ र्े पांच
कमेप्तिर् है।
2. ज्ञानेप्तिर् - त्वक
् , चक्षु, रसना और घ्राि र्ह पांच
ज्ञानेप्तिर्ां है।
3. उभर्ात्मक इप्तिर् - मन को उभर्ात्मक इप्तिर् माना गर्ा
है क्ोंग्नक सभी इप्तिर्ाँ मन क
े िारा ही ग्निषर् ग्रहि करती है।
इप्तिर्ाग्नि समाग्नश्रत्य प्रक
ु प्यप्तन्त र्दा मनाः
। उपघातोपतापाभ्यां र्ोजर्न्तीप्तिर्ाग्नि
ते।(च.सु.28/20)
इप्तिर्दोषज रोग – जब र्े िात, ग्नपत्त,
कफ दोष इप्तिर्ाग्नधष्ठानों में जाकर क
ु ग्नपत
होते हैं तो इप्तिर्ों में उपताप (ग्निक
ृ ग्नत) र्ा
उपघात (नाश) कर देते हैं ।
1. इप्तिर्ों में उपताप - इप्तिर्ों का स्वकार्ा सम्यक
् रूप से
नहीं करना अथाात इप्तिर्ाँ अपने ग्निषर् को ग्निक
ृ त रूप से
ग्रहि करें जैसे नेत्रों िारा ग्नकसी िस्तुग्निशेष का धुंधला
ग्नदखाई देना अथिा शब्द स्पष्ट सुनाई नहीं देना अथिा
घ्रािेप्तिर्ों िारा गंध का सही ज्ञान न होना आग्नद।
2. उपधात- अथाात नाश - पूिारूप से इप्तिर्ों का नष्ट हो
जाना। जैसे नेत्रो क
े नाश होने से अंधा होना, श्रोत्रेप्तिर् क
े
नाश से बहरा होना, क
ु ष्ठ रोग में स्पशेप्तिर् नाश होना आग्नद।
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  • 1. Gov. (Auto.) Ayurveda College And Hospital nipaniya rewa (M.P.) Department of rog nidaan and vikriti vigyaan Guided by :- Dr. S.M. Khuje (MD , HOD) Dr. Archana Singh (MD , lecturer) Submitted by:- Pankaj Meena Batch – 2019 (2nd year)
  • 3. अनुक्रमग्निका अग्नि दुष्टी - अग्नि महत्त्व - देहाग्नि - पर्ाार् - भेद - अग्नि दुग्नष्ट क े हेतु - आहारज ग्ननदान - ग्निहारज ग्ननदान - अग्नि दुग्नष्ट क े भेद ि लक्षि - पाचग्नि क े भेद - तीक्षिाग्नि - मंदाग्नि - ग्निषमाग्नि - समाग्नि
  • 4. अग्नि दुग्नष्ट अग्नि महत्त्व- आचार्ा चरक क े अनुसार देहाग्नि का महत्त्व बतार्ा गर्ा है। ∆ आर्ुिािोबलं स्वास्थ्यमुत्साहोपचर्ौ प्रभा। ओजस्तेजोऽिर्ः प्रािाश्चोक्ता देहाग्निहेतुकाः।। शान्तेऽिौ ग्निर्ते, र्ुक्ते ग्नचरं जीित्यनामर्ः ।। रोगी स्याग्निक ृ ते, मूलमग्निस्तस्माग्निरुच्यते ।। (च.ग्नच.15/3-4)
  • 5. देहाग्नि ग्ननम्न सभी कमों का मूल होने क े कारि प्रधान होती हैं 1. आर्ु – चेतना की अनुभूग्नत होना। 2. ििा – गौर आग्नद ग्निग्नभि ििों की प्राप्ति 3. बल - कार्ा करने की शप्तक्त ि व्यार्ाम करने की शप्तक्त 4. स्वास्थ्य - शारीररक दोषाग्नद तथा आत्मा, मन, इप्तिर्ों कर पुष्ट रहना। 5. उत्साह - दुष्कर कार्ा करने में भी क ु शलता आना।
  • 6. 6. उपचर्- देह का पुष्ट होना। 7. औजस्य - हृदर् में प्तथथत सिा धातुओं क े सार रूपी ओज का पोषि करती है। 8. तेज – आचार्ा चक्रपाग्नि ने तेज से देहोष्मा ि शुक्र दोनों का ग्रहि ग्नकर्ा है। अत: देहाग्नि देहोष्मा का िधान करने क े साथ साथ शुक्र का भी िधान करती है। 9. अिर् - देहाग्नि शरीर में प्तथथत अन्य अग्निर्ों जैसे पञ्च भूताग्नि ि सि धात्वाग्नि का पोषि करती है।
  • 7. ∆ देह्यग्निहेतुका इग्नतदेहपोशकप्रधानजाठराग्नि कारिका:। (चक्रपाग्नि टीका) ~ इस प्रकार देहाग्नि सम्पूिा देह का पोषि करने में मुख्य कारि होती है। पर्ाार् िैश्वानर, िग्नह, धनन्जर्, पािक, अनल, ग्नशखािान्, हुतभुक ् , शुग्नचःिृत्तहा, ग्नहरण्यक े श, अहात, असुर, सिापाक आग्नद।
  • 8. भेद चक्रपाग्नि ने अग्नि क े तेरह भेद बतार्े – 1. जाठराग्नि 1 प्रधानभूत 2. धतिाग्नि 7 ( रस, रक्त, मांस, मेद, अप्तथथ, मज्जा, शुक्र की अग्नि) 3. भूताग्नि 5 (पृथ्वी, जल, िार्ु, अग्नि, आकाश की अग्नि )
  • 9. • द्रिोत्तरो द्रिश्चाग्नप न मात्रागुरुररष्यते। द्रिाढर्मग्नप शुष्क ं तु सम्यिेगोपपद्यते।। • ग्निशुष्कमन्त्रमभ्यस्तं न पाक ं साधु गच्छग्नत । ग्नपण्डीक ृ तमसंप्तििं ग्निदाहमुपगच्छग्नत ॥ अग्नि दुग्नष्ट क े हेतु
  • 10. *स्त्रोतस्यििहे ग्नपत्तं पक्तौ िा र्स्य ग्नतष्ठग्नत। ग्निदाग्नह भुक्तमन्यिा तस्याप्यिं ग्निदह्यते ॥ *शुष्क ं ग्निरुद्धं ग्निष्टम्भ िग्निव्यापदमािहेत्। अत्यम्यबुपानाग्निपमाशनािा संधारिात्स्वप्नविग्निपर्ार्ाच। * कालेऽग्नप सात्म्यं लघु चाग्नप भुक्तमन्त्रं न पाक ं भजते नरस्य। ईष्यांभर्क्रोधपररक्षतेन लुब्धेन रुग्दैन्यग्ननपीग्नितन। प्रिेषर्ुक्तेन च सेव्यमानमन्त्रं न सम्यक्पररिाममेग्नत । (सु. सू. 46/502-507)
  • 11. 1. अग्नधक द्रि का सेिन 2. क े िल द्रि पदाथा का अग्नधक सेिन 3. क े िल ग्निशुष्क अि 4. ग्नपण्ड रूप में ग्नकर्ा हुआ भोजन 5. द्रिाग्नद से गीला नहीं ग्नकर्ा हुआ भोजन 6. शुष्क भोजन आहारज ग्ननदान
  • 12. 7. ग्निरुद्ध भोजन 8. ग्निष्टम्भी भोजन 9. अग्नत जल पीने से 10. ग्निषमाशन करने से (मात्रा से अग्नधक र्ा अल्प अथिा ग्ननग्नश्चत काल से पहले र्ा बाद में ग्नकर्े गर्े आहार को ग्निषमारान कहते हैं)। 11. िेगधारि करने से 12. स्वप्नवि ग्निपर्ार् (सोने में अग्ननर्ग्नमतता से)
  • 13. 1. ईष्याा 2. भर्ः 3. क्रोध 4. लोभ 5. दीनता 6. िेष र्ुक्त ग्निहारज ग्ननदान
  • 14. • उपरोक्त ग्ननदानों क े सेिन से अििाहक स्त्रोतस में तथा ग्नपत्त क े थथान ग्रहिी में ग्नपत्त दुग्नषत हो जाता है। • उस दशा में खार्ा हुआ ग्निदाही अि तथा अग्निदाही अि दोनो ग्निदग्ध हो जाते हैं। • ग्नजससे र्ोग्य समर् में ग्नकर्ा गर्ा लघु भोजन भी ठीक तरह से नहीं पचता है।
  • 15. *अग्निषु तु शारीरेषु चतुग्निाधो ग्निशेषो बलभेदेन भिग्नत। तद्यथा - तीक्ष्िो, मन्दः, समो, ग्निषमश्चेग्नत ॥ (च. ग्नि. 6/12) *स चतुग्निाधो भिग्नत- दोषानग्नभपि एकः । ग्निग्नक्रर्ामापिप्तस्त्रग्निधो भिग्नत - ग्निषमो िातेन, तीक्ष्ि ग्नपत्तेन, मन्दः- श्लेष्मिा, चतुथाः समः सिासाम्याग्नदग्नत । (सु. सू. 35/28) अग्नि दुग्नष्ट क े भेद ि लक्षि
  • 16. ∆ दोष भेद से पाचकाग्नि क े चार भेद होते हैं। 1. तीक्ष्िाग्नि – ग्नपत्त दुग्नष्ट 2. मन्दाग्नि- कफदुग्नष्ट 3. ग्निषमाग्नि- िात दुग्नष्ट 4. समाग्नि – सम िात ग्नपत्त कफ
  • 17. *ग्नपत्तलानां तु ग्नपत्ताग्नभभूते हान्यग्नधष्ठाने तीक्ष्िा भिन्त्यिर्ः तत्र तीक्ष्िोऽग्निः सिाापचारसहः । (च. ग्नि. 6/12) *र्ःप्रभूतमप्युपर्ुक्तमन्त्रमाशु पचग्नत स तीक्ष्िः , स एिाग्नभिद्धामानोऽत्यग्निररत्यभाष्यते। स मुहुमुाहः प्रभूतमप्युपर्ुक्तमन्त्रमाशुतरं पचग्नत, पाकान्ते च गलतािशोषदाहसंतापान जनर्ग्नत। (सु. सू. 46/502 - 507 ) * तीक्ष्िोिग्नहः पचेच्छीघ्रमसम्यगग्नप भोजन। (अ. ह. शा. 3/76) तीक्ष्िाग्नि
  • 18. ∆ पुरुष ग्नपत्त प्रक ृ ग्नत का हो तथा उसका अग्न्यग्नधष्ठान ग्नपत्त से अग्नभभूत हो तो पुरुष की अग्नि तीक्ष्ि होती है। ∆ तीक्ष्िअग्नि सिाापचार सह होती है अथाात ग्नकसी भी प्रकार क े अिपान को अग्नधक मात्रा में ग्रहि करने पर भी र्ह उसे शीघ्र पचा लेता है। ∆ तीक्ष्िाग्नि भी तैक्ष्ण्य भेद से तीन प्रकार की होती है। तीक्ष्ि, तीक्ष्ितम, तीक्ष्ितर। ∆ तीक्ष्ितर अग्नि भेद को आचार्ा सुश्रुत ने अत्यग्नि संज्ञा दी है। ∆ इसकी ग्निशेषता है ग्नक अब बार बार ि प्रभूत मात्रा में ग्नलर्ा जार्े तो भी र्ह शीघ्रतर पचा देती है। इसे िल्हि ने अपनी टीका में भस्मक रोग कहा है। ∆ र्ह रोग पाचन क े पश्चात् गल, तालु और ओष्ठ में शोथ, दाह ि संताप उत्पि करता है।
  • 19. अनुसार कफ का क्षर् एिं ग्नपत्त का प्रकोप होने से ग्नपत्त क े थथान पर जाकर अग्नि क े समभािी होने क े कारि उसे । रा खार्ा गर्ा अग्नधक मात्रा में भोजन भी शीघ्र पच जाता है। ो र्ा तीन घण्टे बाद हो पुनः भोजन करने की इच्छा होने न ग्नमलने पर तीव्र बैचेनी होती, र्ग्नद व्यप्तक्त ऐसी प्तथथग्नत में ा है तो क ु छ देर क े ग्नलर्े रोगी को शाप्तन्त ग्नमल जाती है परन्तु बैचेनी होने लग जाती है। नहीं करता है तो तीक्ष्िाग्नि रक्ताग्नद धातुओं का पाक करना ससे दुबालता, अनेक प्रकार क े रोग ि मृत्यु तक हो सकती
  • 20. मन्दाग्नि *तग्निपरीत लक्षिस्तु मन्दः । (च. ग्नि. 6/12) *र्स्त्वल्पमप्युपर्ुक्तमुदरग्नशरोगौरिकासश्वासप्रसेकच्छग्नदागा त्रसदनाग्नन क ृ त्वा महता कालेन पचग्नत स मंदः । (सु.सु. 35/29) *मन्दस्तु सम्यगप्यन्त्रमुपर्ुक्तं ग्नचरात्पचेत्। क ृ त्वाऽऽस्यशोपाटोपान्त्रक ु जनाध्मानगौरिम् ।। (अ. ह. शा. 3/76)
  • 21. ∆ कफप्रधान पुरुषों में अग्नि का थथान कफ से आक्रान्त होने क े कारि उनक े िारा ग्रहि ग्नकर्ा गर्ा अल्प भोजन भी कग्नठनता से पचता है। ∆ अल्प भोजन करने पर भी उदर ि ग्नशर में भारीपन तथा कास, श्वास प्रसेक िमन और अंगों में थकािट आग्नद ग्निकार उत्पन होते हैं। ∆ आचार्ा िाग्भट ने बतार्ा ग्नक समुग्नचत मात्रा में खार्े गर्े आहार को भी ग्रहि करने पर मुख सूख जाता है। ∆ पेट में गुिगुि शब्द का होना, आत्रक ू जन, आध्मान तथा भारीपन आग्नद लक्षिों क े साथ-साथ भोजन देर से पचता है।
  • 22. ∆ मनुष्य मन्दाग्नि से ग्रग्नसत होने पर गुरु ि ग्निग्ध आग्नद गुि र्ुक्त द्रव्यों का सेिन करता है। ∆ र्ह द्रव्य धातुओं ि अन्य अिर्िों क े पोषि में काम नहीं आ पाते हैं जबग्नक उनका बडा अंश अनुपर्ुक्त रह कर मल रूपी कफ का ग्ननमााि करता है। ∆ कफ मात्रा से अग्नधक होने क े कारि ग्निग्नभि थथानों पर संग्नचत होकर ग्निग्नभि लक्षिों को उत्पि करता है।
  • 23. ∆ उदर की श्लेष्मकला में कफ संग्नचत होकर उदर में गुरुता उत्पि करता है। ∆ ग्नशर में संग्नचत होकर ग्नशर में गुरुता उत्पि करता है। ∆ प्राििहस्रोतसों में जाकर कास, श्वास की उत्पग्नत्त करता है। ∆ आमाशर् में जाकर कफज छग्नदा उत्पि करता है। ∆ सिा शरीर में आम क े संश्रर् से गौरि ि ग्नशग्नथलता उत्पि होती है। ∆ ग्नचग्नकत्सा - मंदाग्नि होने पर कटु , ग्नतक्त, कषार् दृव्यों का प्रर्ोग और िमन कराना चाग्नहर्े।
  • 24. • िातलानां तु िाताग्नभभूते ग्निषमाभिन्त्यिर्ः। (च.ग्नि. 6/12) • समलक्षिग्निपरीतलक्षिस्तु ग्निषम इग्नत। (च. ग्नि. 6/12) • र्ः कदाग्नचत् सम्यक ् पचग्नत, कदाग्नचदाध्मान शूलोदाितााग्नतसारजप्रगौरिान्त्रक ृ जनप्रिाहिाग्नन क ृ त्वा सग्निषमः । ( सु.सु. 35/20) • ग्निषमो ऽसम्यगप्याश सम्यग्वाऽग्नप ग्नचरात्पचेत्। (अ. ह. शा. 3/75) ग्निषामाग्नि
  • 25. ∆ िात प्रधान व्यप्तक्त का अग्नि थथान िार्ु से अग्नभभूत रहता है ग्नजससे उनकी अग्नि ग्निषम हो जाती है। ∆ ग्निषमाग्नि क े कारि व्यप्तक्त िारा ग्नकर्ा गर्ा भोजन कभी कभी सम्यक रूप से पच जाता है, परन्तु कभी कभी आध्मान, शूल, उदािता , अग्नतसार, उदर में भारीपन ि आंतों में क ू जन ि प्रिाहि आग्नद ग्निकार उत्पि हो जाते हैं।
  • 26. िाग्भट्ट क े अनुसार जो अग्नि अग्नधक मात्रा में खार्े आहार को भी शीघ्र अथिा उग्नचत मात्रा में खार्े गर्े आहार को देर से पचाती है िह ग्निषम अग्नि है।
  • 27. • िल्हि क े अनुसार ग्निषमािेिाार्ुर्ादा न ग्निग्नक्षपग्नत तदाऽग्निः सम्यक ् पचग्नत, र्दा पुनररतशेतच भागशो ग्निग्नक्षिः स्यातदा सम्यङ्कः न पचग्नत। (सु. सू. 35/24 िल्हि टीका) जब तक अग्नि अपने थथान पर है तब तक आहार का सम्यक पाचन करती है। परन्तु जब िात अग्नि को अपने ही थथान से बाहर ग्ननकाल देती है तब आहार का सम्यक पाचन नहीं होता है ग्नजससे आध्मान आग्नद लक्षि व्यक्त होने लग जाते है।
  • 28. ∆ िात प्रक ृ ग्नत क े पुरुष में ग्निषमाग्नि क े कारि क्षुधा भी ग्निषम होती है। पररिामस्वरूप कभी उसकी क्षुधा अग्नधक प्रदीि हो जाने क े कारि कभी अग्नधक मात्रा में भोजन कर लेता है और कभी क्षुधा कम होने से अल्प मात्रा में भोजन ग्रहि करता है। अग्नधक भोजन करने पर उसकी धातुएँ अग्नधक पुष्ट होने लगती है ि भोजन अल्प लेनेपर धातुऐं क्षीि होने लगती है ग्नजससे व्यप्तक्त कभी कभी पुष्ट ग्नदखाई देता है ि कभी कभी अत्यन्त दुबाल ग्नदखाई देता है।
  • 29. ग्निषमो धातुिैषम्यं करोग्नत ग्निषम पचन् । (च. ग्नच. 15/50) ग्नचग्नकत्सा - ग्निषमाग्नि ग्निग्ध , अम्ल, लिि, रस प्रधान ग्नक्रर्ाओं से प्रग्नतकार करना चाग्नहर्े।
  • 30. तत्र, र्ो र्थाकालमुपर्ुक्तमन्त्रं सम्यक ् पचग्नत स समः समैदोष: । (सु. सु. 35/29) तत्र समिातग्नपत्तश्लेष्मिां प्रक ृ ग्नतथथानां समा भिन्त्यिर्ः । (च. ग्नि. 6/12) र्ः पचेत्सम्यगेिानं भुक्तं सम्यक समस्त्वसौ।। (अ. ह. शा. 3/75) ग्नजस पुरुष में िात ग्नपत्त कफ र्ह दोष सम और प्रक ृ ग्नतथथ रहते है उनक े कारि अग्नि भी सम रहती है ग्नजससे उपर्ुक्त समर् में खार्े हुर्े अि को ठीक तरह से पचाती है। समाग्नि
  • 31.  समाग्नि की अिथथा में व्यप्तक्त को उपरोक्त िग्निात कोई भी रोग नहीं होता है ग्नजससे सभी दोष, धातु, उपधातु और मल समािथथा में रहते हैं। ग्नजससे शरीर में आरोग्य, पुग्नष्ट, बल और आर्ु की िृप्तद्ध होती है। व्यप्तक्त अग्नहत आहार ग्निहार नहीं करें तो अग्नि सम अिथथा में ही रहती है परन्तु अग्नहत आहार ग्निहार करने से अग्नि की ग्निग्नभि ग्निक ृ ग्नतर्ां हो जाती है  ग्नचग्नकत्सा – समे पररक्षिं क ु िीत (सु. सू. 35/31)  समाग्नि की सिा प्रकार से रक्षा करनी चाग्नहर्े।
  • 33. इप्तिर्ों की उत्पग्नत्त अंहकार से हुर्ी हैं तथा सत्व ि रज दोनों क े संर्ोग से एकादश इप्तिर्ों का ग्ननमााि होता है। 1. कमेप्तिर् - िािी, हाथ, पैर, गुदा और उपथथ र्े पांच कमेप्तिर् है। 2. ज्ञानेप्तिर् - त्वक ् , चक्षु, रसना और घ्राि र्ह पांच ज्ञानेप्तिर्ां है। 3. उभर्ात्मक इप्तिर् - मन को उभर्ात्मक इप्तिर् माना गर्ा है क्ोंग्नक सभी इप्तिर्ाँ मन क े िारा ही ग्निषर् ग्रहि करती है।
  • 34. इप्तिर्ाग्नि समाग्नश्रत्य प्रक ु प्यप्तन्त र्दा मनाः । उपघातोपतापाभ्यां र्ोजर्न्तीप्तिर्ाग्नि ते।(च.सु.28/20) इप्तिर्दोषज रोग – जब र्े िात, ग्नपत्त, कफ दोष इप्तिर्ाग्नधष्ठानों में जाकर क ु ग्नपत होते हैं तो इप्तिर्ों में उपताप (ग्निक ृ ग्नत) र्ा उपघात (नाश) कर देते हैं ।
  • 35. 1. इप्तिर्ों में उपताप - इप्तिर्ों का स्वकार्ा सम्यक ् रूप से नहीं करना अथाात इप्तिर्ाँ अपने ग्निषर् को ग्निक ृ त रूप से ग्रहि करें जैसे नेत्रों िारा ग्नकसी िस्तुग्निशेष का धुंधला ग्नदखाई देना अथिा शब्द स्पष्ट सुनाई नहीं देना अथिा घ्रािेप्तिर्ों िारा गंध का सही ज्ञान न होना आग्नद। 2. उपधात- अथाात नाश - पूिारूप से इप्तिर्ों का नष्ट हो जाना। जैसे नेत्रो क े नाश होने से अंधा होना, श्रोत्रेप्तिर् क े नाश से बहरा होना, क ु ष्ठ रोग में स्पशेप्तिर् नाश होना आग्नद।