3. 1.
अपने सिर की भेंट देकर गुरु िे ज्ञान प्राप्त करो | परन्तु यह िीख
न मानकर और तन, धनादद का असभमान धारर् कर ककतने ही मूखण
िंिार िे बह गये, गुरुपद - पोत में न लगे।
4.
व्यवहार में भी िाधु को गुरु की आज्ञानुिार ही आना -
जाना चादहए | िद् गुरु कहते हैं कक िंत वही है जो जन्म -
मरर् िे पार होने के सलए िाधना करता है |
6.
कु बुद्धध रूपी कीचड़ िे सिष्य भरा है, उिे धोने के सलए गुरु
का ज्ञान जल है। जन्म - जन्मान्तरो की बुराई गुरुदेव क्षर्
ही में नष्ट कर देते हैं।
7.
गुरु कु म्हार है और शिष्य घडा है, भीतर से हाथ का सहार
देकर, बाहर से चोट मार - मारकर और गढ़ - गढ़ कर
शिष्य की बुराई को निकलते हैं।
8.
6.
गुरु के िमान कोई दाता नहीं, और सिष्य के
िदृि याचक नहीं। त्रिलोक की िम्पत्ति िे भी बढकर ज्ञान -
दान गुरु ने दे ददया।
9.
7.
यदद गुरु वाराणसी में निवास करे और शिष्य समुद्र के निकट हो,
परन्तु शिष्ये के िारीर में गुरु का गुण होगा, जो गुरु लो एक क्षड
भी िहीीं भूलेगा।
10.
8.
॥८॥
व्याख्या:
गुरु को अपना सिर मुकु ट मानकर, उिकी आज्ञा मैं चलो | कबीर
िादहब कहते हैं, ऐिे सिष्य - िेवक को तनों लोकों िे भय नहीं है |
11.
9.
गुरु िो प्रीतततनवादहये, जेदह तत तनबहै िंत।
प्रेम त्रबना दढग दूर है, प्रेम तनकट गुरु कं त॥९॥
व्याख्या:
जैिे बने वैिे गुरु - िन्तो को प्रेम का तनवाणह करो। तनकट होते
हुआ भी प्रेम त्रबना वो दूर हैं, और यदद प्रेम है, तो गुरु - स्वामी
पाि ही हैं।
12.
10.गुरु मूरतत गतत चन्रमा, िेवक नैन चकोर।
आठ पहर तनरखत रहे, गुरु मूरतत की ओर॥१०॥
व्याख्या: गुरु की मूरतत चन्रमा के िमान है और िेवक
के नेि चकोर के तुल्य हैं। अतः आठो पहर गुरु - मूरतत
की ओर ही देखते रहो।
13.
11.गुरु मूरतत आगे खड़ी, दुततया भेद
कु छ नादहं।
उन्हीं कूं परनाम करर, िकल
ततसमर समदट जादहं॥११॥
व्याख्या: गुरु की मूततण आगे खड़ी
है, उिमें दूिरा भेद कु छ मत
मानो। उन्हीं की िेवा बंदगी करो,
किर िब अंधकार समट जायेगा।
15.
िब धरती कागज करूूँ , सलखनी िब बनराय।
िात िमुर की मसि करूूँ , गुरु गुर् सलखा न
जाय |
व्याख्या: िब पृथ्वी को कागज, िब जंगल
को कलम, िातों िमुरों को स्याही बनाकर
सलखने पर भी गुरु के गुर् नहीं सलखे जा
िकते।
16.
14.
पींडडत यदद पदि गुनि मुये, गुरु बबिा शमलै ि ज्ञाि।
ज्ञाि बबिा िदहीं मुक्तत है, सत्त िब्द परमाि॥१४॥
बड़े - बड़े त्तवद्व।न िास्िों को पढ - गुनकर ज्ञानी होने का दम भरते
हैं, परन्तु गुरु के त्रबना उन्हें ज्ञान नही समलता। ज्ञान के त्रबना मुक्तत
नहीं समलती।
17. 15.
कहै कबीर तक्ज भरत को, नन्हा है कर पीव।
तक्ज अहं गुरु चरर् गहु, जमिों बाचै जीव॥१५॥
व्याख्या: कबीर िाहेब कहते हैं कक भ्रम को छोडो, छोटा बच्चा बनकर गुरु - वचनरूपी दूध को
त्तपयो। इि प्रकार अहंकार त्याग कर गुरु के चरर्ों की िरर् ग्रहर् करो, तभी जीव िे बचेगा।
18.
16.
िोई िोई नाच नचाइये, जेदह तनबहे गुरु प्रेम।
कहै कबीर गुरु प्रेम त्रबन, ककतहुं कु िल नदहं क्षेम॥
अपिे मि - इक्न्द्रयों को उसी चाल में चलाओ, क्जससे गुरु
के प्रनत प्रेम बिता जये। कबीर सादहब कहते हैं कक गुरु के
प्रेम बबि, कहीीं कु िलक्षेम िहीीं है।
19.
17.तबही गुरु प्रप्रय बैि कदह, िीष
बढ़ी चचत प्रीत।
ते कदहये गुरु सिमुखाीं, कबहूूँ ि
दीजै पीठ॥
व्याख्या: सिष्य के मन में बढी हुई प्रीतत
देखकर ही गुरु मोक्षोपदेि करते हैं। अतः
गुरु के िमुख रहो, कभी त्तवमुख मत बनो।
20.
19.
करै दूरी अज्ञािता, अींजि ज्ञाि सुदये।
बशलहारी वे गुरु की हूँस उबारर जु लेय॥१९॥
:
ज्ञाि का अींजि लगाकर शिष्य के अज्ञाि दोष को
दूर कर देते हैं। उि गुरुजिों की प्रिींसा है, जो
जीवो को भव से बचा लेते हैं।
21.
20.
साबुि बबचारा तया करे, गाूँठे वाखे मोय।
जल सो अरक्षा परस िदहीं, तयों कर ऊजल
होय॥२०॥
व्याख्या:
िाबुन बेचारा तया करे,जब उिे गांठ में बांध रखा है। जल िे स्पिण
करता ही नहीं किर कपडा कै िे उज्जवल हो। भाव - ज्ञान की वार्ी
तो कं ठ कर ली, परन्तु त्तवचार नहीं करता, तो मन कै िे िुद्ध हो।
22.
21.राजा की चोरी करे, रहै रंक की ओट।
कहै कबीर तयों उबरै, काल कदठन की चोट॥२१॥
23.
२४॥
व्याख्या: िद् गुरु समल गये - यह बात तब जाने जानो,
जब तुम्हारे दहदे में ज्ञान का प्रकाि हो जाये, भ्रम का
भंडा िोडकर तनराले स्वरूपज्ञान को प्राप्त हो जाये