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पतंग
कक्षा-बारहव ं(कोर)
आरोह - भाग -II
कक्षा- बारहव ं
आरोह- भाग-दो
कवव-आलोक धन्वा
कवव पररचय
जन्म- सन १९४८ ई बबहार के मंगेर जजले में
कायय-१९७२ में लेखन कायय
रंगकमी
सामाजजकऔर सांस्कृ ततक काययकताय
सामाजजक चेतना के कवव
महात्मा गााँध अंतरराष्ट्रीय हहंदी
ववश्वववद्यालय में काययरत
रचनाएं
पहली कववता -जनता का आदम
भाग हई लड़ककयां
ब्रूनो की बेहियां
दतनया रोज बनत है
काव्यगत ववशेषताएं - भारत य संस्कृ तत का चचत्रण
बाल मनोववज्ञान की अच्छी समझ
भाषाशैली: शद्ध साहहजत्यक शब्दों का प्रयोग,बबम्बों का सन्दर प्रयोग
पतंग-भावभूमम
‘पतंग’ आलोक धन्वा की तीन हिस्सों में फै ली िुई एक लंबी कहवता िै। परंतु
उसका तीसरा हिस्सा िी पाठ्य क्रम में शाहमल हकया गया िै।
इस कहवता में आया िुआ पतंग शब्द असल में बिुत सी बातों का प्रतीक िै। वि
कल्पना, उमंग, उत्साि, उड़ान और हवकास का प्रतीक बनकर कहवता में नये अर्थ
रचता िै।
पतंग
सबसे तेज़ बौछारें गयीं भादो गया
सवेरा हुआ।
खरगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा
शरद आया पुलों को पार करते हुए।
अपनी नयी चमकीली साइककल तेज़
चलाते हुए
पतंग
घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से
चमकीले इशारों से बुलाते हुए
पतंग उडाने-वाले बच्चों के झुंड को
चमकीले इशारों से बुलाते हुए और
आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए
कक पतंग ऊपर उठ सके -
ककव अपनी रचना का आरंभ करते हुए कहते हैं कक बरसात का मौसम कवदा हो गया। कजस समय सबसे तेज वर्ाा हुआ करती है, वह
भाद्र माह भी अब बीत चुका है। एक नयी सुबह आ पहुंची है। लाकलमा से युक्त यह कोमल सुबह, खरगोश की आंखों जैसी लाल
कदखायी देती है। खरगोश स्वयं भी कोमलता का प्रतीक है।
वर्ाा ऋतु के जाते ही शरद ऋतु आ पहुंची है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह अपनी यात्रा के दौरान समय और अवरोधों के बहुत से पुलों
को पार करने के बाद आयी है।
बरसात के कदनों में बादलों के छाये रहने से जो घूप नरम हुआ करती थी, वह अब ज्यादा प्रखर और चमकदार हो चली है। ककव इस
कबंब को प्रस्तुत करने के कलये उसकी तुलना चमकीली साईककल से कर रहे हैं। मानो कोई बच्चा अपनी नयी रंग-कबरंगी चमकदार
साईककल की घंटी को उत्साह के साथ जोर से बजाता हुआ भागा चला आ रहा हो।
शरद ऋतु पतंग उडाने वाले बच्चों को अपने पास बुलाने के कलये इशारा कर रही है। यानी वह संके त कर रही है, कक वह सुहाना मौसम
आ गया है, जब बच्चे पतंगें उडा सकते हैं।
उसने आसमान को भी इतना कोमल बना कदया है अथाात् बच्चों के अनुकू ल वातावरण कनकमात कर कदया है, ताकक बच्चों की पतंगें वहां
अकधक से अकधक ऊं चाई तक जा सकें ।
भावार्य
काव्य सौंदयय
खरगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा’, यहां पर उपमा
अलंकार है।
‘शरद आया पुलों को पार करते हुए’, यहां पर शरद ऋतु
का मानवीकरण ककया गया है। अतः मानवीकरण
अलंकार है।
कबंब का शाकददक अथा है-कचत्र। ककवता में शददों के द्वारा
ककसी दृश्य का कचत्रण ही कबंब कहलाता है।
‘आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए’। यहां पर आकाश
को मुलायम बनाने के प्रतीक से बच्चों की कोमल भावनाओं
की ओर संके त ककया गया है।
‘कक शुरू हो सके सीकटयों, ककलकाररयों और/कततकलयों की
इतनी नाज़ुक दुकनया।’ यहां पर बच्चों की उमंगों, आनंद और
कोमलता को सीकटयों, ककलकाररयों और कततली के प्रतीक
द्वारा समझाया गया है।
शांत और वात्सल्य रस है।
पतंग
दुकनया की सबसे हलकी और रंगीन चीज़ उड सके
दुकनया का सबसे पतला काग़ज़ उड सके -
बाँस की सबसे पतली कमानी उड सके -
कक शुरू हो सके सीकटयों, ककलकाररयों और
कततकलयों की इतनी नाज़ुक दुकनया
पतंग
जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास
पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास
जब वे दौडते हैं बेसुध
छतों को भी नरम बनाते हुए
कदशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए
जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं
डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर;
पतंग
छतों के खतरनाक ककनारों तक-
उस समय कगरने से बचाता है उन्हें
कसर्फा उनके ही रोमांकचत शरीर का संगीत
पतंगों की धडकती ऊचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़
एक धागे के सहारे
पतंगों के साथ-साथ वे भी उड रहे हैं
अपने रंध्रों के सहारे
पतंग
अगर वे कभी कगरते हैं छतों के खतरनाक ककनारों से
और बच जाते हैं तब तो
और भी कनडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं
पृथ्वी और भी तेज़ घूमती हूई आती है
उनके बेचैन पैरों के पास।
भावार्य
आलोक धन्वा बच्चों की कोमलता की ओर संके त करते हुए कहते हैं
कक वे अपने जन्म के साथ ही कपास जैसी कोमलता लेकर आते हैं।
उनका शरीर, त्वचा, भाव सभी कु छ अनंत कोमलता से युक्त होता है।
वे एक अदृश्य सत्य को प्रकट करते हुए बताते हैं कक खुद धरती ही
घूमती हुई उनके कनरंतर चंचलता में रहने वाले पैरों के पास आती है।
यहां पर ककव ने कल्पना को, दाशाकनक पररकल्पना में बदल कदया है।
एक दाशाकनकता इसमें कनकहत है। कथन के कवपयाय को भी देकखये कक
बच्चों के पैर धरती पर दौडने नहीं जाते, इसके उलट स्वयं धरती ही
उनके व्याकु ल पैरों के पास आ पहुंचती है।
अथाात् समूची धरती ही उनके पैरों की गकत के सामने
छोटी है। कम है। आंकशक है। अपनी धुरी पर घूम रही
पृथ्वी की गकत को इस तरह ककव ने एक नया ही अथा दे
कदया है।किर आलोक धन्वा अपनी ककवता में आगे बढ़ते
हुए बताते हैं, कक कजस समय बच्चे अपनी सुध-बुध
खोकर दौड रहे होते हैं, तब छतों की कठोरता भी उनके
कलये नरम बन जाती है। वे उसकी परवाह नहीं करते।
भावार्य
बच्चों ने तो होश खो देने की प्रबलता को आत्मसात् कर रखा है। उसकी पराकाष्ठा को अकजात कर रखा है। इसकलये उन्होंने
सब तरह के भयों पर भी कवजय पा ली है।
ककव ने एक और उपमा का प्रयोग करते हुए बताया है कक जैसे एक लचीली डाली मोडकर छोडी जाये, तो वह अपनी
सबसे तेज गकत से अपने पूवा स्थान की ओर लौटती है। वही गकत ़बच्चों के पास होती है। कसर्फा बच्चों के पास। अन्यत्र
दुलाभ है।
इस गकत का झोंका उन्हें छतों की ककनार तक पहुंचा देता है। खतरनाक ककनार तक। वे छत से कगरने को होते हैं, शरीर कगर
जाने के कलये बाहर तक झूल भी जाता है, पर वे अपनी ही देह के रोमांचक संगीत से अपने को सम्हाल लेते हैं।
भावार्य
वही देह सम्हालती है उन्हें, कजसकी सुध-बुध बच्चों ने खो दी है। एक
आंतररक संतुलन उन्हें बार-बार बचाता है। आकाश में उडने वाली पतंगों की
धडकती हुई ऊं चाईयां ही मानो उन्हें अपने कनतांत पतले धागे से थाम लेती हैं।
वे स्वयं इतने हल्के होते हैं, भारहीन होते हैं कक पतंगों के साथ खुद भी
आसमान की अनंतता में उड रहे होते हैं। उनकी देह के रोम-कछद्र ही उन्हें
भारहीन बनाते हैं। और भारहीन बनाता है उन्हें उनका कनष्कलुश होना।
कनष्पाप होना। अमल होना।
यह उडान उनकी आकांक्षाओं की उडान है। आशाओं की उडान है।
संभावनाओंकी उडान है। असल में एक बच्चा ही संसार की सबसे बडी
संभावना है। उसके अंदर से महानता, श्रेष्ठता और महामानवता के पैदा हो
सकने की संभावना होती है।
अब वह जोखम उठाने का सहस करने वाला बन गया है। अब
वह सूरज की तपन का सामना करने को तैयार है। चुनौकतयों
का मुकाबला करने को तैयार है।
और अब तो उनकी आकांक्षाओंका दायरा इतना बडा हो
जाता है कक धरती की सीमाएं छोटी पड जाती हैं। पृथ्वी कवराट
आकांक्षाओंसे युक्त बच्चों के आतुर पैरों के पास और भी
तेज गकत से चली आती है।
अब उसे बच्चे की गकत का मुकाबला करना है। मामला उलट
गया हैं पहले बच्चे के सामने धरती की गकत की चुनौती थी,
अब धरती के सामने बच्चे की आकांक्षाओंकी गकत की
कवराट चुनौकतयां हैं।
काव्य सौंदयय
उपमा अलंकार : ‘कदशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए’,
‘डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर’।
2 उत्प्रेक्षा अलंकार : ‘जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं
कपास’, ‘पतंगों के साथ-साथ वे भी उड रहे हैं’।
‘पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास’, ‘पतंगों
की धडकती ऊचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं’।
5 कबंब कवधान : 1 ‘जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं/डाल की
तरह लचीले वेग से अक्सर/छतों के खतरनाक ककनारों तक-’
6 ककवता की भार्ा सरल, सहज और प्रवाहपूणा है।
मुहावरों का प्रयोग हुआ है : ‘छतों को भी नरम
बनाते हुए’, ‘जब वे पेंग भरते हुए चले आते
हैं’, ‘पतंगों की धडकती ऊचाइयाँ उन्हें थाम
लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे’।
शांत और वात्सल्य रस है।
धन्यवाद
हदलीप कमार बाड़त्या
प .ज .िी.(हहंदी)
जवाहर नवोदय ववद्यालय , पलझार, बौद्ध,
ओडिशा

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Patang-पतंग (कविता)

  • 1. पतंग कक्षा-बारहव ं(कोर) आरोह - भाग -II कक्षा- बारहव ं आरोह- भाग-दो कवव-आलोक धन्वा
  • 2. कवव पररचय जन्म- सन १९४८ ई बबहार के मंगेर जजले में कायय-१९७२ में लेखन कायय रंगकमी सामाजजकऔर सांस्कृ ततक काययकताय सामाजजक चेतना के कवव महात्मा गााँध अंतरराष्ट्रीय हहंदी ववश्वववद्यालय में काययरत
  • 3. रचनाएं पहली कववता -जनता का आदम भाग हई लड़ककयां ब्रूनो की बेहियां दतनया रोज बनत है काव्यगत ववशेषताएं - भारत य संस्कृ तत का चचत्रण बाल मनोववज्ञान की अच्छी समझ भाषाशैली: शद्ध साहहजत्यक शब्दों का प्रयोग,बबम्बों का सन्दर प्रयोग
  • 4. पतंग-भावभूमम ‘पतंग’ आलोक धन्वा की तीन हिस्सों में फै ली िुई एक लंबी कहवता िै। परंतु उसका तीसरा हिस्सा िी पाठ्य क्रम में शाहमल हकया गया िै। इस कहवता में आया िुआ पतंग शब्द असल में बिुत सी बातों का प्रतीक िै। वि कल्पना, उमंग, उत्साि, उड़ान और हवकास का प्रतीक बनकर कहवता में नये अर्थ रचता िै।
  • 5. पतंग सबसे तेज़ बौछारें गयीं भादो गया सवेरा हुआ। खरगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा शरद आया पुलों को पार करते हुए। अपनी नयी चमकीली साइककल तेज़ चलाते हुए
  • 6. पतंग घंटी बजाते हुए ज़ोर-ज़ोर से चमकीले इशारों से बुलाते हुए पतंग उडाने-वाले बच्चों के झुंड को चमकीले इशारों से बुलाते हुए और आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए कक पतंग ऊपर उठ सके -
  • 7. ककव अपनी रचना का आरंभ करते हुए कहते हैं कक बरसात का मौसम कवदा हो गया। कजस समय सबसे तेज वर्ाा हुआ करती है, वह भाद्र माह भी अब बीत चुका है। एक नयी सुबह आ पहुंची है। लाकलमा से युक्त यह कोमल सुबह, खरगोश की आंखों जैसी लाल कदखायी देती है। खरगोश स्वयं भी कोमलता का प्रतीक है। वर्ाा ऋतु के जाते ही शरद ऋतु आ पहुंची है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह अपनी यात्रा के दौरान समय और अवरोधों के बहुत से पुलों को पार करने के बाद आयी है। बरसात के कदनों में बादलों के छाये रहने से जो घूप नरम हुआ करती थी, वह अब ज्यादा प्रखर और चमकदार हो चली है। ककव इस कबंब को प्रस्तुत करने के कलये उसकी तुलना चमकीली साईककल से कर रहे हैं। मानो कोई बच्चा अपनी नयी रंग-कबरंगी चमकदार साईककल की घंटी को उत्साह के साथ जोर से बजाता हुआ भागा चला आ रहा हो। शरद ऋतु पतंग उडाने वाले बच्चों को अपने पास बुलाने के कलये इशारा कर रही है। यानी वह संके त कर रही है, कक वह सुहाना मौसम आ गया है, जब बच्चे पतंगें उडा सकते हैं। उसने आसमान को भी इतना कोमल बना कदया है अथाात् बच्चों के अनुकू ल वातावरण कनकमात कर कदया है, ताकक बच्चों की पतंगें वहां अकधक से अकधक ऊं चाई तक जा सकें । भावार्य
  • 8. काव्य सौंदयय खरगोश की आँखों जैसा लाल सवेरा’, यहां पर उपमा अलंकार है। ‘शरद आया पुलों को पार करते हुए’, यहां पर शरद ऋतु का मानवीकरण ककया गया है। अतः मानवीकरण अलंकार है। कबंब का शाकददक अथा है-कचत्र। ककवता में शददों के द्वारा ककसी दृश्य का कचत्रण ही कबंब कहलाता है। ‘आकाश को इतना मुलायम बनाते हुए’। यहां पर आकाश को मुलायम बनाने के प्रतीक से बच्चों की कोमल भावनाओं की ओर संके त ककया गया है। ‘कक शुरू हो सके सीकटयों, ककलकाररयों और/कततकलयों की इतनी नाज़ुक दुकनया।’ यहां पर बच्चों की उमंगों, आनंद और कोमलता को सीकटयों, ककलकाररयों और कततली के प्रतीक द्वारा समझाया गया है। शांत और वात्सल्य रस है।
  • 9. पतंग दुकनया की सबसे हलकी और रंगीन चीज़ उड सके दुकनया का सबसे पतला काग़ज़ उड सके - बाँस की सबसे पतली कमानी उड सके - कक शुरू हो सके सीकटयों, ककलकाररयों और कततकलयों की इतनी नाज़ुक दुकनया
  • 10. पतंग जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास जब वे दौडते हैं बेसुध छतों को भी नरम बनाते हुए कदशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर;
  • 11. पतंग छतों के खतरनाक ककनारों तक- उस समय कगरने से बचाता है उन्हें कसर्फा उनके ही रोमांकचत शरीर का संगीत पतंगों की धडकती ऊचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे पतंगों के साथ-साथ वे भी उड रहे हैं अपने रंध्रों के सहारे
  • 12. पतंग अगर वे कभी कगरते हैं छतों के खतरनाक ककनारों से और बच जाते हैं तब तो और भी कनडर होकर सुनहले सूरज के सामने आते हैं पृथ्वी और भी तेज़ घूमती हूई आती है उनके बेचैन पैरों के पास।
  • 13. भावार्य आलोक धन्वा बच्चों की कोमलता की ओर संके त करते हुए कहते हैं कक वे अपने जन्म के साथ ही कपास जैसी कोमलता लेकर आते हैं। उनका शरीर, त्वचा, भाव सभी कु छ अनंत कोमलता से युक्त होता है। वे एक अदृश्य सत्य को प्रकट करते हुए बताते हैं कक खुद धरती ही घूमती हुई उनके कनरंतर चंचलता में रहने वाले पैरों के पास आती है। यहां पर ककव ने कल्पना को, दाशाकनक पररकल्पना में बदल कदया है। एक दाशाकनकता इसमें कनकहत है। कथन के कवपयाय को भी देकखये कक बच्चों के पैर धरती पर दौडने नहीं जाते, इसके उलट स्वयं धरती ही उनके व्याकु ल पैरों के पास आ पहुंचती है। अथाात् समूची धरती ही उनके पैरों की गकत के सामने छोटी है। कम है। आंकशक है। अपनी धुरी पर घूम रही पृथ्वी की गकत को इस तरह ककव ने एक नया ही अथा दे कदया है।किर आलोक धन्वा अपनी ककवता में आगे बढ़ते हुए बताते हैं, कक कजस समय बच्चे अपनी सुध-बुध खोकर दौड रहे होते हैं, तब छतों की कठोरता भी उनके कलये नरम बन जाती है। वे उसकी परवाह नहीं करते।
  • 14. भावार्य बच्चों ने तो होश खो देने की प्रबलता को आत्मसात् कर रखा है। उसकी पराकाष्ठा को अकजात कर रखा है। इसकलये उन्होंने सब तरह के भयों पर भी कवजय पा ली है। ककव ने एक और उपमा का प्रयोग करते हुए बताया है कक जैसे एक लचीली डाली मोडकर छोडी जाये, तो वह अपनी सबसे तेज गकत से अपने पूवा स्थान की ओर लौटती है। वही गकत ़बच्चों के पास होती है। कसर्फा बच्चों के पास। अन्यत्र दुलाभ है। इस गकत का झोंका उन्हें छतों की ककनार तक पहुंचा देता है। खतरनाक ककनार तक। वे छत से कगरने को होते हैं, शरीर कगर जाने के कलये बाहर तक झूल भी जाता है, पर वे अपनी ही देह के रोमांचक संगीत से अपने को सम्हाल लेते हैं।
  • 15. भावार्य वही देह सम्हालती है उन्हें, कजसकी सुध-बुध बच्चों ने खो दी है। एक आंतररक संतुलन उन्हें बार-बार बचाता है। आकाश में उडने वाली पतंगों की धडकती हुई ऊं चाईयां ही मानो उन्हें अपने कनतांत पतले धागे से थाम लेती हैं। वे स्वयं इतने हल्के होते हैं, भारहीन होते हैं कक पतंगों के साथ खुद भी आसमान की अनंतता में उड रहे होते हैं। उनकी देह के रोम-कछद्र ही उन्हें भारहीन बनाते हैं। और भारहीन बनाता है उन्हें उनका कनष्कलुश होना। कनष्पाप होना। अमल होना। यह उडान उनकी आकांक्षाओं की उडान है। आशाओं की उडान है। संभावनाओंकी उडान है। असल में एक बच्चा ही संसार की सबसे बडी संभावना है। उसके अंदर से महानता, श्रेष्ठता और महामानवता के पैदा हो सकने की संभावना होती है। अब वह जोखम उठाने का सहस करने वाला बन गया है। अब वह सूरज की तपन का सामना करने को तैयार है। चुनौकतयों का मुकाबला करने को तैयार है। और अब तो उनकी आकांक्षाओंका दायरा इतना बडा हो जाता है कक धरती की सीमाएं छोटी पड जाती हैं। पृथ्वी कवराट आकांक्षाओंसे युक्त बच्चों के आतुर पैरों के पास और भी तेज गकत से चली आती है। अब उसे बच्चे की गकत का मुकाबला करना है। मामला उलट गया हैं पहले बच्चे के सामने धरती की गकत की चुनौती थी, अब धरती के सामने बच्चे की आकांक्षाओंकी गकत की कवराट चुनौकतयां हैं।
  • 16.
  • 17. काव्य सौंदयय उपमा अलंकार : ‘कदशाओं को मृदंग की तरह बजाते हुए’, ‘डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर’। 2 उत्प्रेक्षा अलंकार : ‘जन्म से ही वे अपने साथ लाते हैं कपास’, ‘पतंगों के साथ-साथ वे भी उड रहे हैं’। ‘पृथ्वी घूमती हुई आती है उनके बेचैन पैरों के पास’, ‘पतंगों की धडकती ऊचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं’। 5 कबंब कवधान : 1 ‘जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं/डाल की तरह लचीले वेग से अक्सर/छतों के खतरनाक ककनारों तक-’ 6 ककवता की भार्ा सरल, सहज और प्रवाहपूणा है। मुहावरों का प्रयोग हुआ है : ‘छतों को भी नरम बनाते हुए’, ‘जब वे पेंग भरते हुए चले आते हैं’, ‘पतंगों की धडकती ऊचाइयाँ उन्हें थाम लेती हैं महज़ एक धागे के सहारे’। शांत और वात्सल्य रस है।
  • 18. धन्यवाद हदलीप कमार बाड़त्या प .ज .िी.(हहंदी) जवाहर नवोदय ववद्यालय , पलझार, बौद्ध, ओडिशा