सुनो न! by
सन्ध्या गोयल सुगम्या
किताब के बारे में...
अपनी बात मुझमें से गर निकाल दो मेरी लेखनी मेरी ज़िन्दगी से मेरी नहीं निभनी यूँ तो आते हैं सभी जीने के लिये पर ज़िन्दगी न लगती सबको भली इतनी सुख में सखी और दुख में दोस्त मेरी लेखनी ने कभी न होने दी कोफ्त मेरी अनुभूतियाँ ,जो कविता बन गईं मेरे मन का हिस्सा थीं अब पाठकों तक पहुँच गईं किसी भी रचनाकार के मन में जब कोई रचना आकार लेती है, तब वह उसकी नितान्त अपनी होती है। किन्तु वही जब पाठकों तक पहुँचती है तो वह सार्वजनिक हो जाती है। लिखने वाले ने जिस भाव से लिखी हो, उसके पाठक उसे उसी भाव से ग्रहण करें, यह आवश्यक नहीं। समय, परिस्थिति और स्वभाव के अनुसार पाठक उसे अलग अलग रूप में भी ग्रहण करते हैं। शब्द. इन के माध्यम से अपनी कविताओं को आप सुधी पाठकों तक पहुँचाते हुए मुझे बड़े हर्ष का अनुभव हो रहा है।
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